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Published on Thursday, January 18, 2018 by Dr A L Jain | Modified on Monday, February 19, 2018
चित्तौड़गढ़ के अधिकांश शासक शैव मतावलम्बी रहे है, जिनके शरीर तो क्षत्रिय थे, लेकिन उनकी शक्ति ऐसे जैन श्रेष्ठी रहे जिन्होंने राजसत्ता को आर्थिक पोषण ही नहीं दिया, अपितु अपनी वीरता एवं बौद्धिक क्षमताओं से राज्य को सुरखित भी रखा। जैनाचार्यों को स्वयं सम्मान देकर सम्राटों के सम्मुख उन्हें सम्माननीय बनाया। राजाओं के द्वारा प्रसन्न होने पर अपनी श्री वृद्धि या स्वार्थ के निमित्त कभी मुंह नहीं खोला, अपितु जैन धर्म के उत्कर्ष, आभारी की घोषणा एवं तीर्थ रक्षा के लिए राजाज्ञाएँ चाही। मेवाड़ के अधिकांश कालखण्ड में यहाँ के शासक, जैन धर्म के संरक्षक, पोषक एवं श्रद्धालु रहे है। उन्होंने जैन धर्म को आश्रय व सम्बल दिया एवं कई जैन-मंदिर बनवाये या जीर्णोद्धार करवाये। इसी के फलस्वरूप चित्तौड़गढ़ में जैन संस्कृति का शताब्दियों तक विशाल एवं गौरवशाली प्रभुतव रहा और इसे जैन धर्म की संस्कार-भूमि कहा जाने लगा।
यहाँ के राज परिवारों ने कई जैन श्रेष्ठियों को उनकी कार्य कुशलता, ईमानदारी एवं नीति निर्माताओं के रूप में समय≤ पर राजकाज में महत्वपूर्ण स्थान दिये। उदाहरण स्वरूप महाराणा हमीर के समय जालसी मेहता, महाराणा कुंभा के समय वेला भंडारी, गुणराज, महाराणा रतनसिंह के समय भारमलजी कावड़िया (भामाशाह के पिता), ताराचन्द कावड़िया, महाराणा प्रताप के समय दानवीर भामाशाह एवं राणा अमरसिंह के समय जीवाशाह (भामाशाह के पुत्र), रंगोजी बोलिया, सिंघवी दयालदास, मेहता अगरचंद, मेहता मालदास, नवलखा रामदेव, नवलखा सहणपाल, बोलिया निहालचंद, अक्षयराज, दयालदास, कर्मचन्द्र बच्छावत आदि कई जैन श्रेष्ठी महत्वपूर्ण पदों पर रहे।
इन जैन श्रेष्ठियों के प्रति शासकों के अगाध विश्वास का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अधिकांश को पीढ़ी दर पीढ़ी उन्ही पदों पर खा गया एवं खजानों की चाबियाँ उन्ही के पास रहने दी गई। सामरिक महत्व के किलों व गढ़ों को उनके नेतृत्व में सौपा व उन्हें सेना नायकों के पद पर नियुक्त कर युद्ध में सैन्य संचालन उन्ही के जिम्मे किया। संधि वार्ताओं तथा राजकाज के अन्य कार्य भी इन लोगों ने बड़ी कुशलता एवं निष्ठा से सम्पन्न कर ख्याति अर्जित की।
चित्तौड़ दुर्ग पर सैकड़ों वर्षों से शासकों एवं श्रावकों द्वारा आचार्यों एवं गुरू भगवन्तों की प्रेरणा से भव्य एवं कलात्मक जैन मन्दिरों का निर्माण/जीर्णोद्धार करवाया जाता रहा है। किसी समय दुर्ग पर 300 मन्दिर होने का उललेख मिलता है। पादरी एडवर्ड ने 1615 के सफरनामे में चित्तौड़गढ़ में 200 मंदिर एवं एक लाख के लभगभग घरों के खण्डहरों की पुष्टि की है (वीर विनोद)। हमारे मन्दिर, विदेशी आक्रमणकारियों-अलाउद्दीन खिलजी, अकबर, शाहजहाँ एवं औरंगजेब आदि की बर्बरता के शिकार होते रहे और हमारी विरासत के कई नायाब नमूने नेस्तनाबूत हो गये। वि. सं. 1556 की हेमचरित तीर्थमाला एवं वि. सं. 1573 की हर्षप्रमोद के शिष्य गयंदि रचित तीर्थमाला में यहाँ विभिन्न गच्छों के 32 मन्दिरों का उल्लेख है। तीसरी जैन परिपाटी बड़ौदा की ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट में उपलब्ध 7 पत्रों के अनुसार अहमदाबाद के यात्रियों का संघ चित्तौड़़ गया था, जिसमें प्रसंगवश 16 मन्दिरों के क्रम से नाम है। ये मन्दिर अधिकांशतः कीर्ति स्तम्भ, गौमुख एवं श्रृंगार चवरी के मध्य भाग में स्थित रहे, होंगे, ऐसी संभावना है।
कुछ मन्दिर जिनकी प्रतिष्ठा या जीर्णोद्धार के लेख मिलते है लेकिन जिनके अस्तितव का आज पता नहीं लगता या जो ध्वस्त या जीर्ण अवस्था में है, निम्नानुसार है।
The true and sublime message of Mahavir inspires in us the lofty emotion of universal amity as if throught the cry of a 'conch shell'.
By Sir Akbar Hydri
The Jain literature is greatly useful to the world in the sphere of Historical research and studies. It provides abundant material to Historians, Archeologists and Scholars to carry out their research. The Jain Sadhus have set a magnificent example to the world of self discipline by discimplining their senses absolutely and by observing vows and principles with the greatest degree of austerity. Even the life of a householder who has dedicated himself to the principles of Jainism is so Faultless and perfect that it should be honoured throughout India.
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