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Published on Wednesday, January 17, 2018 by Dr A L Jain | Modified on Monday, February 19, 2018
इतिहास में चित्तौड़गढ़ का नाम आते ही महाराणा कुंभा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप आदि वीरों की, भक्तिमति मीरा की एवं स्वामिभक्त पन्नाधाय की गौरवमयी छवियां मन मस्तिष्क में उभरती है, वही 1444 ग्रंथों के रचियता महान आचार्य श्री हरिभद्रसूरि, युगान्तरकारी आचार्य श्री जिनदत्तसूरि, धर्म प्रभावक आचार्य श्री विजयनीतिसूरि एवं उद्भट विद्वान् पद्मश्री मुनि जिनविजय आदि कई आचार्यो की कर्मभ्ूामि-चित्तौड़गढ़ जैन धर्म एवं चित्तौड़गढ़ के गौरवपूर्ण संबंधों को स्थापित करती है। भामाशाह जैसे देशभक्त, दानवीर एवं धर्मवीर कर्माशाह जैसे कई जैन श्रेष्ठियों ने देशभक्ति एवं स्वामिभक्ति की अद्भुत मिसालें प्रस्तुत की है। श्री सात बीस देवरी के जैन मंदिर, जैन कीर्ति स्तम्भ एवं श्रृंगार चंवरी जैसे अद्भुत शिल्प के मंदिर चित्तौड़गढ़ एवं देश की विरासत है। शक्ति एवं भक्ति के साथ साथ जैन धर्म के महान आचार्यो, श्रेष्ठिवर्यो एवं अद्भुत शिल्प के मंदिरों का योगदान चित्तौड़गढ़ को अद्भुत आभा मण्डल से मंडित करता है।
चित्रकूट के उद्भव के पूर्व मालवा एवं मरु प्रदेश के बीच का क्षेत्र महाभारत के काल से शिवि जनपद कहा जाता था। इसकी राजधानी होने का गौरव ‘माध्यमिका नगरी जो आज ‘नगरी कहलाती है, चित्तौड़गढ़ से मात्र 15 कि.मी. दूरी पर है। आज भी नगरी अपने पुरातन वैभव को समेटे है। महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद के प्राचीनतम शिलालेख के अनुसार भगवान महावीर के वीतिभय पत्तन (संभवतः बामणवाड जी, सिरोही) से विहार कर दशार्ण जनपद के प्रमुख नगर दशार्णपुर (दशपुर-आज का मन्दसौर) जाते हुए माध्यमिका/नगरी आने का उल्लेख मिलता है ‘विराय भगवन चतुरासिति वस-झार सालिमालिनीयर निविठ मज्झिमिके’। कल्प सूत्र में भी वर्णन आया है कि ‘माध्यमिका शाखा’ श्रमणों की एक मुख्य गणशाखा थी। तीर्थकर श्री नेमिनाथ एवं श्री पाश्र्वनाथ की चरण रज से भी यह धरती पावन हुई है। सम्राट अशोक के पुत्र एवं जैन धर्म पालने वाले महान शासक सम्प्रति के समय आर्य प्रिय ग्रंथ ने 300 ई. पूर्व माध्यमिका को अपना केन्द्र बनाया था।
चित्तौड़गढ़ क्षेत्र से प्राप्त शिलालेख, प्रशस्तियाँ, भव्य जैन मंदिरों के खण्डहर एवं प्रख्यात दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आचार्यों के तत्समय के ग्रंथ इसे निर्विवाद रूप से प्राचीन काल से जैन संस्कृति एवं वैभव का केन्द्र स्थापित करते है। अलग-अलग काल खण्ड में जहाँ सातबीस देवरी जैन मंदिर, श्रृंगार चंवरी जैसे मंदिर एवं सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र्रसूरि, कृष्णार्षि, जिनदत्तसूरि, प्रद्युम्न सूरि जैसे कई दिग्गज आचार्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रभुत्व दर्शाते है, वही आचार्य वीरसेन, श्री कीर्ति, महाकवि डड्ढा व हरिषेण जैसे दिग्गज आचार्य व जैन कीर्ति स्तंभ जैसा अपने समय का विश्व में अनूठा स्तंभ दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रभुत्व दर्शाते है। श्वेताम्बर आचार्यो में खरतरगच्छ के आचार्यो का बडे़ लम्बे समय तक, चित्तौड़ एक गढ़ रहा है। यहाँ के राज परिवारों ने जैन धर्म को बड़ा मान-सम्मान दिया, कई मंदिर बनवाए व जैनियों की तीन-तीन पीढ़ियों को प्रशासन में बड़े बड़े पदों पर जिम्मेदारी दी।
अति संक्षेप में सैकड़ों वर्षो से मझमिका/माध्यमिका/मेदपाट के नामों से विख्यात आज की ‘नगरी’ व चित्रकूट के नाम से विख्यात आज के चित्तौड़गढ़ का यह क्षेत्र शक्ति एवं भक्ति के साथ साथ अपने वैभवशाली जैन अतीत को भी समेटे हुए है।
The fact that the Jin Dharma is an ancient religion has been proved by countless rock-edicts, caves, fossils and the excavations at Mohenjodaro. The Jain Dharma has been in vogue from the time creation. It is more ancient than the Vadant Dharma.
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