सोम, 16 जन 2017, 6:26 pm को jahaj mandir ने लिखा: कांकरिया गोत्र का इतिहास... चांदी के एक थाल को कंकरों से भर दिया गया। पूर्णिमा की रात को चंद्रमा की चांदनी में गुरुदेव ने उन कंकरों का अभिमंत्रण करना प्रारंभ किया।... लेखक- पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म. कांकरिया गोत्र का उद्भव नवांगी वृत्तिकार खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी म. के पट्टधर आचार्य जिनवल्लभसूरि के उपदेश से हुआ है। वि. सं. 1142 का यह घटनाक्रम है। चित्तौड नगर के महाराणा के राजदरबार में भीमसिंह नामक सामंत पदवीधारी था। वह पडिहार राजपूत खेमटराव का पुत्र था। वह कांकरावत का निवासी था। उसे महाराणा की चाकरी करना पसंद न था। एक बार राजदरबार में किसी कारणवश सामंत भीमसिंह आक्रोश में आ गये। उनका स्वाभिमान जागा और वे अपने गांव चले गये। महाराणा को यह उचित नहीं लगा। तुरंत सेवा में चले आने का हुकम जारी किया। पर सामंत भीमसिंह ने वहाँ जाना स्वीकार नहीं किया।
इस पर अत्यन्त क्रुद्ध होकर महाराणा से विशाल सेना भेजी और आदेश दिया कि सामंत भीमसिंह को कैसे भी करके बंदी बना कर मेरी सेवा में उपस्थित किया जाय। गुप्तचरों से सेना के आगमन के समाचार ज्ञात कर भीमसिंह भयभीत हो उठा। अब मेरी रक्षा कौन करेगा! इस चिंता में उसे अनुचरों ने बताया कि अपने गांव में पिछले दो तीन दिनों से आचार्य जिनवल्लभसूरि नामक बडे आचार्य आये हुए हैं। योगी हैं, चमत्कारी ज्ञात होते हैं। उनकी साधना का तेज मुखमंडल पर चमक रहा है। आप उनकी सेवा में जाओ, कोई मार्ग निकलेगा। भीमसिंह दौडा दौडा उपाश्रय में गया। आचार्य जिनवल्लभसूरि के चरणों में बैठकर अपनी विपदा का वर्णन किया। उसने कहा- गुरुदेव! मैं और मेरा स्वाभिमान आपकी शरण में हैं। मुझे बचाईये। आप जो भी आदेश देंगे, उसे मैं स्वीकार करूँगा। ज्ञानी गुरुदेव आचार्यश्री ने उसका चेहरा देखा। ललाट की रेखाऐं पढी। भवितव्यता का रहस्य जाना। और कहा- तूं यदि मेरा आदेश मानता है तो मैं तेरी रक्षा का उपाय कर सकता हूँ। सुनकर भीमसिंह की आँखों में चमक आ गई। तुरंत हाँ भरते हुए कहा- आप आदेश दीजिये। आप जो भी आदेश देंगे, मैं उसका अक्षरश: पालन करूँगा। गुरुदेव ने कहा- सबसे पहले तो तुझे मांसाहार का सर्वथा त्याग करना होगा। सामंत की स्वीकृति पाकर गुरुदेव ने सप्त व्यसनों से मुक्त होने का नियम सुनाया। फिर कहा- तुझे वीतराग परमात्मा महावीर का अनुयायी होना है। उसने सहर्ष स्वीकृति देते हुए कहा- भगवन्! आप मेरी रक्षा करो। मैं जैन श्रावक होने को तत्पर हूँ। मेरा पूरा परिवार आपकी आज्ञा को सहर्ष शिरोधार्य करेगा। गुरुदेव ने कहा- ऐसे नहीं! मैं कहूँ और तुम मान लो। मैं तुम्हारी सुरक्षा के बदले तुम्हारा जैनत्व नहीं चाहता। अपितु मैं चाहता हूँ कि तुम पहले धर्म का स्वरूप समझो। और तुम्हें लगे कि परमात्मा का अहिंसा मूलक धर्म सत्य से ओतप्रोत है,तो फिर इसे स्वीकार करो। गुरुदेव ने लगातार उसे धर्म की देशना दी। धर्म के सत्य स्वरूप को समझकर भीमसिंह प्रभावित हुआ। और उसने हृदय से जैन धर्म को स्वीकार करने का निर्णय किया। गुरुदेव ने उससे कहा- महाराणा की सेना आने ही वाली है। तुम्हारे पास विशाल सैन्य नहीं है। इस बाह्य परिवेश से तो तुम्हारी हार स्पष्ट दिखती है। पर चिंता नहीं करना। जाओ और बाहर बिखरे कुछ कंकर उठा लाओ। चांदी के एक थाल को कंकरों से भर दिया गया। पूर्णिमा की रात को चंद्रमा की चांदनी में गुरुदेव ने उन कंकरों का अभिमंत्रण करना प्रारंभ किया। चार घंटे चली साधना के परिणाम स्वरूप वे कंकर दिव्य उफर्जा और शक्ति से परिपूर्ण हो गये। सामंत को बुला कर वह थाल उसे देते हुए कहा- जब सेना आ जावे। तब सेना के समक्ष इन कंकरों को नवकार महामंत्र गिनते हुए उछाल देना। फिर तुम इन कंकरों का चमत्कार देखना। भीमसिंह ने उत्कंठा से कहा- भगवन्! क्या इन कंकरों से शत्रु सेना खत्म हो जायेगी! गुरुदेव ने कहा- मैं जैन साधु हूँ। मेरा धर्म अहिंसा है। अहिंसा ही मेरे प्राण है। हिंसा की बात मेरे द्वारा कैसे हो सकती है! सामंत ने कहा- हाँ भगवन्! आपकी सानिध्यता ने मुझे यह बोध तो दिया ही है। गुरुदेव ने कहा- इन कंकरों के प्रभाव से सेना के सारे शस्त्र अस्त्र कुंठित हो जायेंगे। तलवार की धार चली जायेगी। तोपों के गोले नदारद हो जायेंगे। भालों की तीक्ष्णता पुष्पों की कोमलता में बदल जायेगी। सामंत भीमसिंह चमत्कृत हो उठा। उसे रत्ती भर भी आशंका न थी। गुरुदेव पर अपार श्रद्धा का उद्भव हुआ था। उनकी नि:स्पृहता और त्याग देख कर वह परम भक्त हो चुका था। दूसरे ही दिन सेना गाँव के किनारे आ गयी। सेनापति ने हमले का आदेश दिया। सेना अपने शस्त्रों का प्रयोग करे, उससे पूर्व ही नवकार महामंत्र गिनकर भीमसिंह ने धडकते हृदय से कंकरों की बरसात सेना पर कर दी। सेना के सारे शस्त्र अस्त्र बेकार हो गये। यह देख कर सेना घबरा उठी। सेनापति दौडता हुआ महाराणा के पास पहुँचा और सारी हकीकत बताई। महाराणा ने यह चमत्कार सुना तो उसने समझौता करने में ही भलाई समझी। उसने तुरंत संदेश भेजा कि आप सहर्ष दरबार में पधारे। आपका सम्मान किया जायेगा। सामंत भीमसिंह दरबार में पहुँचा और महाराणा की ओर से सम्मान प्राप्त कर प्रसन्न हो उठा। चित्तौड से वापस आकर अपने गाँव में बिराजमान आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के चरणों में पहुँचा और निवेदन किया- मेरा संस्कार करें। मुझे जैन धर्म की शिक्षा और दीक्षा दें। चूंकि कांकरावत नामक गांव में यह घटना घटी थी और कंकरों से विजय प्राप्त हुई थी। इस कारण गुरुदेव ने 'कांकरिया'गोत्र की स्थापना करते हुए उसके सिर पर वासक्षेप डाला। इस प्रकार कांकरिया गोत्र की स्थापना हुई। कांकरिया गोत्रीय परिवार पूरे भारत में फैले हुए हैं। इस गोत्र में कई आचार्य, साधु भगवंत हुए हैं। वर्तमान में मुनि मेहुलप्रभ आदि मुनि कांकरिया गोत्रीय है। भोपालगढ जिसका पुराना नाम बडलू था, जहाँ चौथे दादा गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरि महाराज की दीक्षा हुई थी, वहाँ कांकरिया गोत्रीय घर बडी संख्या में है। भोपालगढ के ही मूल निवासी सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व श्री डी. आर. मेहता इसी गोत्र के हैं। भोपालगढ के कांकरिया गोत्रीय परिवार महाराष्ट्र प्रान्त में बडी संख्या में निवास करता है। इन परिवारों की यह विशेषता है कि समय के बदलाव के साथ वे भले अन्य किसी भी पंथ या संप्रदाय के अनुयायी हो गये हों, परन्तु उनके घरों में कुल देवता के रूप में दादा गुरुदेव के चरण पूजे जाते हैं। गोत्र का निर्माण करने वाले गुरुदेव और उनकी परम्परा के प्रति उन परिवारों के पूर्वजों के कृतज्ञता भावों का यह प्रत्यक्ष उदाहरण है। कांकरिया गोत्र के प्राचीनतम शिलालेख वि. सं. 1492 के प्राप्त होते हैं। इन शिलालेखों में खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनभद्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराये जाने का उल्लेख है।
हमारे मुनि मेहुलप्रभ कांकरिया गोत्रीय है। इस गोत्र में और कितने ही साध्ुओं व सािध््वयों ने संयम स्वीकार करके अपनी आत्मा का कल्याण किया है।
Guru dev shri ke charno me naman karte h.
सोम, 16 जन 2017, 6:26 pm को jahaj mandir
कांकरिया गोत्र का इतिहास... चांदी के एक थाल को कंकरों से भर दिया गया। पूर्णिमा की रात को चंद्रमा की चांदनी में गुरुदेव ने उन कंकरों का अभिमंत्रण करना प्रारंभ किया।...
लेखक- पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.
कांकरिया गोत्र का उद्भव नवांगी वृत्तिकार खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी म. के पट्टधर आचार्य जिनवल्लभसूरि के उपदेश से हुआ है।
वि. सं. 1142 का यह घटनाक्रम है। चित्तौड नगर के महाराणा के राजदरबार में भीमसिंह नामक सामंत पदवीधारी था। वह पडिहार राजपूत खेमटराव का पुत्र था। वह कांकरावत का निवासी था। उसे महाराणा की चाकरी करना पसंद न था। एक बार राजदरबार में किसी कारणवश सामंत भीमसिंह आक्रोश में आ गये। उनका स्वाभिमान जागा और वे अपने गांव चले गये।
महाराणा को यह उचित नहीं लगा। तुरंत सेवा में चले आने का हुकम जारी किया। पर सामंत भीमसिंह ने वहाँ जाना स्वीकार नहीं किया।
इस पर अत्यन्त क्रुद्ध होकर महाराणा से विशाल सेना भेजी और आदेश दिया कि सामंत भीमसिंह को कैसे भी करके बंदी बना कर मेरी सेवा में उपस्थित किया जाय।
गुप्तचरों से सेना के आगमन के समाचार ज्ञात कर भीमसिंह भयभीत हो उठा। अब मेरी रक्षा कौन करेगा! इस चिंता में उसे अनुचरों ने बताया कि अपने गांव में पिछले दो तीन दिनों से आचार्य जिनवल्लभसूरि नामक बडे आचार्य आये हुए हैं। योगी हैं, चमत्कारी ज्ञात होते हैं। उनकी साधना का तेज मुखमंडल पर चमक रहा है। आप उनकी सेवा में जाओ, कोई मार्ग निकलेगा।
भीमसिंह दौडा दौडा उपाश्रय में गया। आचार्य जिनवल्लभसूरि के चरणों में बैठकर अपनी विपदा का वर्णन किया। उसने कहा- गुरुदेव! मैं और मेरा स्वाभिमान आपकी शरण में हैं। मुझे बचाईये। आप जो भी आदेश देंगे, उसे मैं स्वीकार करूँगा।
ज्ञानी गुरुदेव आचार्यश्री ने उसका चेहरा देखा। ललाट की रेखाऐं पढी। भवितव्यता का रहस्य जाना। और कहा- तूं यदि मेरा आदेश मानता है तो मैं तेरी रक्षा का उपाय कर सकता हूँ।
सुनकर भीमसिंह की आँखों में चमक आ गई। तुरंत हाँ भरते हुए कहा- आप आदेश दीजिये। आप जो भी आदेश देंगे, मैं उसका अक्षरश: पालन करूँगा।
गुरुदेव ने कहा- सबसे पहले तो तुझे मांसाहार का सर्वथा त्याग करना होगा। सामंत की स्वीकृति पाकर गुरुदेव ने सप्त व्यसनों से मुक्त होने का नियम सुनाया। फिर कहा- तुझे वीतराग परमात्मा महावीर का अनुयायी होना है।
उसने सहर्ष स्वीकृति देते हुए कहा- भगवन्! आप मेरी रक्षा करो। मैं जैन श्रावक होने को तत्पर हूँ। मेरा पूरा परिवार आपकी आज्ञा को सहर्ष शिरोधार्य करेगा।
गुरुदेव ने कहा- ऐसे नहीं! मैं कहूँ और तुम मान लो। मैं तुम्हारी सुरक्षा के बदले तुम्हारा जैनत्व नहीं चाहता। अपितु मैं चाहता हूँ कि तुम पहले धर्म का स्वरूप समझो। और तुम्हें लगे कि परमात्मा का अहिंसा मूलक धर्म सत्य से ओतप्रोत है,तो फिर इसे स्वीकार करो।
गुरुदेव ने लगातार उसे धर्म की देशना दी। धर्म के सत्य स्वरूप को समझकर भीमसिंह प्रभावित हुआ। और उसने हृदय से जैन धर्म को स्वीकार करने का निर्णय किया।
गुरुदेव ने उससे कहा- महाराणा की सेना आने ही वाली है। तुम्हारे पास विशाल सैन्य नहीं है। इस बाह्य परिवेश से तो तुम्हारी हार स्पष्ट दिखती है। पर चिंता नहीं करना। जाओ और बाहर बिखरे कुछ कंकर उठा लाओ।
चांदी के एक थाल को कंकरों से भर दिया गया। पूर्णिमा की रात को चंद्रमा की चांदनी में गुरुदेव ने उन कंकरों का अभिमंत्रण करना प्रारंभ किया।
चार घंटे चली साधना के परिणाम स्वरूप वे कंकर दिव्य उफर्जा और शक्ति से परिपूर्ण हो गये। सामंत को बुला कर वह थाल उसे देते हुए कहा- जब सेना आ जावे। तब सेना के समक्ष इन कंकरों को नवकार महामंत्र गिनते हुए उछाल देना। फिर तुम इन कंकरों का चमत्कार देखना।
भीमसिंह ने उत्कंठा से कहा- भगवन्! क्या इन कंकरों से शत्रु सेना खत्म हो जायेगी!
गुरुदेव ने कहा- मैं जैन साधु हूँ। मेरा धर्म अहिंसा है। अहिंसा ही मेरे प्राण है। हिंसा की बात मेरे द्वारा कैसे हो सकती है!
सामंत ने कहा- हाँ भगवन्! आपकी सानिध्यता ने मुझे यह बोध तो दिया ही है।
गुरुदेव ने कहा- इन कंकरों के प्रभाव से सेना के सारे शस्त्र अस्त्र कुंठित हो जायेंगे। तलवार की धार चली जायेगी। तोपों के गोले नदारद हो जायेंगे। भालों की तीक्ष्णता पुष्पों की कोमलता में बदल जायेगी।
सामंत भीमसिंह चमत्कृत हो उठा। उसे रत्ती भर भी आशंका न थी। गुरुदेव पर अपार श्रद्धा का उद्भव हुआ था। उनकी नि:स्पृहता और त्याग देख कर वह परम भक्त हो चुका था।
दूसरे ही दिन सेना गाँव के किनारे आ गयी। सेनापति ने हमले का आदेश दिया। सेना अपने शस्त्रों का प्रयोग करे, उससे पूर्व ही नवकार महामंत्र गिनकर भीमसिंह ने धडकते हृदय से कंकरों की बरसात सेना पर कर दी।
सेना के सारे शस्त्र अस्त्र बेकार हो गये। यह देख कर सेना घबरा उठी। सेनापति दौडता हुआ महाराणा के पास पहुँचा और सारी हकीकत बताई।
महाराणा ने यह चमत्कार सुना तो उसने समझौता करने में ही भलाई समझी। उसने तुरंत संदेश भेजा कि आप सहर्ष दरबार में पधारे। आपका सम्मान किया जायेगा। सामंत भीमसिंह दरबार में पहुँचा और महाराणा की ओर से सम्मान प्राप्त कर प्रसन्न हो उठा।
चित्तौड से वापस आकर अपने गाँव में बिराजमान आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के चरणों में पहुँचा और निवेदन किया- मेरा संस्कार करें। मुझे जैन धर्म की शिक्षा और दीक्षा दें।
चूंकि कांकरावत नामक गांव में यह घटना घटी थी और कंकरों से विजय प्राप्त हुई थी। इस कारण गुरुदेव ने 'कांकरिया'गोत्र की स्थापना करते हुए उसके सिर पर वासक्षेप डाला। इस प्रकार कांकरिया गोत्र की स्थापना हुई। कांकरिया गोत्रीय परिवार पूरे भारत में फैले हुए हैं। इस गोत्र में कई आचार्य, साधु भगवंत हुए हैं। वर्तमान में मुनि मेहुलप्रभ आदि मुनि कांकरिया गोत्रीय है।
भोपालगढ जिसका पुराना नाम बडलू था, जहाँ चौथे दादा गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरि महाराज की दीक्षा हुई थी, वहाँ कांकरिया गोत्रीय घर बडी संख्या में है। भोपालगढ के ही मूल निवासी सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व श्री डी. आर. मेहता इसी गोत्र के हैं। भोपालगढ के कांकरिया गोत्रीय परिवार महाराष्ट्र प्रान्त में बडी संख्या में निवास करता है। इन परिवारों की यह विशेषता है कि समय के बदलाव के साथ वे भले अन्य किसी भी पंथ या संप्रदाय के अनुयायी हो गये हों, परन्तु उनके घरों में कुल देवता के रूप में दादा गुरुदेव के चरण पूजे जाते हैं।
गोत्र का निर्माण करने वाले गुरुदेव और उनकी परम्परा के प्रति उन परिवारों के पूर्वजों के कृतज्ञता भावों का यह प्रत्यक्ष उदाहरण है।
कांकरिया गोत्र के प्राचीनतम शिलालेख वि. सं. 1492 के प्राप्त होते हैं। इन शिलालेखों में खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनभद्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराये जाने का उल्लेख है।
हमारे मुनि मेहुलप्रभ कांकरिया गोत्रीय है। इस गोत्र में और कितने ही साध्ुओं व सािध््वयों ने संयम स्वीकार करके अपनी आत्मा का कल्याण किया है।