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Published on Saturday, January 20, 2018 by Dr A L Jain | Modified on Monday, December 3, 2018
मीराबाई आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व भारतीय समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करने वाली, नारी अस्मिता की रक्षा करने वाली, ईश्वर के अस्तीत्व में प्र्रबल विश्वास एवं अगाध श्रद्धा रखने वाली व राज्य परिवार की होकर एक सन्यासीन की तरह रहकर बगावत करने वाली अद्भुत महिला थी।
मीरा का जन्म मेड़ता में वि. सं. 1561 की श्रावण सुदी प्रतिपदा को हुआ था। उनका ननिहाल कुड़की गाँव में था। उनके पिता का नाम रतनसिंह राठौड़ एवं माता का नाम वीर कुंवरी था। वह जोधपुर के संस्थापक जोधा जी के पुत्र दूदा जी की पौत्री थी। मात्र 2 वर्ष की उम्र में ही उनकी माता के निधन के बादस राव दूदाजी के पास रही। जब वह 12 वर्ष की हुई तो उनका विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हो तो गया पर वे तो बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति मानती थी और उन्ही की आराधना में लीन रहती थी। दुर्भाग्य से विवाह के 2 वर्ष बादही उनके पति का देहावसान हो गया। जब तत्कालीन राजघरानों की परम्परा अनुसार उन पर सभी ओर से सती होने का दबाव पड़ा पर वे इसके लिये तैयार नहीं हुई। उनकी सास महारानी रत्ना कुमारी ने उनका साथ दिया और उन्हें सती नहीं होने दिया।
मीरा तो पहले से ही कृष्ण भक्ति में लीन थी पर पति के देहावसान के बाद तो भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना सब कुछ मान चुकी थी। वह एक जोगन की तरह रहती और बहुत सरल भाषा में मधुर पद व भजन लिखती और उन्हें गाया करती। उनके भजन आज वर्षो बाद भी जनमानस में लोकप्रिय है। उनके पदों में श्रीकृष्ण के प्रति असीम प्रेम व अनन्य भक्ति परिलक्षित होती है।
पति की मृत्यु के कुछ समय बाद मीरा के देवर राणा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठे जिन्होंने मीरा को विषपान द्वारा एवं पीटारी में नाम भेजकर मार डालना चाहा पर 'जाको राखे साईयाँ, मार सके ना कोई' की उक्ति सार्थक हुई। तत्पश्चात् मीरा अपने ताऊ वीरमदेव के पास मेड़ता चली गई। वहाँ कुछ समय रहकर वह वृन्दावन चली गई। वि. सं. 1600 में मीरा डाकोर गई व कुछ समय बाद वहाँ से द्वारका जाकर बस गई।
महाराणा उदयसिंह व राव जयमल ने अपने राजपुरोहितों का एक दल सूरदास चाम्पावत के नेतृत्व में मीरा बाई को ससम्मान चित्तौड़ लाने हेतु भेजा, परन्तु मीरा बाई इसके लिये तैयार नहीं हुई। इस पर राजपुरोहितों ने आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया, जिसके बाद मीरा बाई अचानक वहाँ से अन्तधर््यान हो गई। कहते है कि मीरा भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समाकर विलीन हो गई।
चित्तौड़गढ़ को आज यह गौरव प्राप्त है कि आज भी वह मंदिर जहाँ मीरा अपने आराध्य देव श्रीकृष्ण को पूजती थी, वह कलात्मक व सुन्दर मंदिर आज भी बड़ी शान से खड़ा है। जिसे आज 'मीरा मंदिर' के नाम से सभी जानते है एवं श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
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