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Published on Friday, January 19, 2018 by Dr A L Jain | Modified on Monday, December 3, 2018
चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आज पूजित जैन मंदिरों में श्री सातबीस देवरी के जैन मंदिर, कीर्तिस्तंभ के पास का मल्लिनाथ जी का मंदिर, रत्नेश्वर तालाब के पास भगवान महावीर एवं शांतिनाथ जी के जिन मंदिर, गोमुख के पास चैमुखा पाश्र्वनाथ का मंदिर, गौमुख कुण्ड के पास का सुकोशलमुनि का मंदिर आज अच्छी अवस्था में है।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के सभी मंदिरों में श्री सातबीस देवरी के नाम से प्रसिद्ध ये मंदिर अपने भव्य आकर्षक रूप में अपनी आभा आज भी बिखेर रहे है एवं जैन धर्म के गौरव एवं समृद्धि की गाथा कह रहे है।
सीमंदर शाह नाम के एक ब्राह्मण हलवाई ने वि. सं. 1004 तद्नुसार सन् 947 में केरापुरपट्टन में (आज का भुपाल सागर या करेडा पाश्र्वनाथ) आकर व्यापक शुरू किया। केरापुरपट्टन तब एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। लक्खी नाम का एक करोड़पति बंजाय वहाँ ठहरा हुआ था। एक दिन सीमंदर लक्खी बंजारा के ठिकाने के सामने से निकल रहा था तो उसने बणजारे को मिठाई का नजराना किया। बणजारा तब अपनी पत्नी से बड़े क्रोध में झगड़ रहा था, क्योंकि उसकी पत्नी ने उसे उलाहना दे दिया था कि तेरी लक्ष्मी मेरी वजह से है। मेरे आने के पहले तो तेरे पास एक हजार बैल भी नहीं थे। आज तू मेरे कारण ही एक लाख बैलों से व्यापार कर रहा है और लक्खी बणजारा कहला रहा है। बणजारे ने झगड़ा बढ़ने पर अपनी पत्नी को सीमंदर को सौप कर घर से निकाल दिया। सीमंदर ने रजामंदी से उसकी पत्नी को अपने यहाँ रख लिया। पत्नी बहुत भाग्यशाली थी, उसके आते ही सीमंदर के भाग्य पलट गये, वह बहुत अमीर बन गया। अब उसे धन की सुरक्षा की चिंता सताने लगी, इसलिए वह चित्तौड़ के रावल किरण दत्त के पास गया। उन्होंने उसका धन अपनी सुरक्षा में रखने से इंकार कर दिया। तब किसी ने उसे राजगुरू श्री शांतिसूरि भट्टारक के शिष्य भी यशोभद्र सूरि से इस हेतु मिलने को कहा। यशोभद्र सूरि बड़े प्रभावशाली एवं चमत्कारी आचार्य थे। उन्होंने सीमंदर से कहा कि तुझे भाग्य से लक्ष्मी मिली है तो इसका सदुपयोग कर व इस धन से जैन पंचतीर्थ बनवा, इससे तेरा इहलोक व परलोक सुधर जावेगा, साथ में मै तुझे जैन धर्म भी अंगीकार करवा दूंगा।
सीमंदर ने गुरु महाराज के आशीर्वाद एवं निर्देशानुसार सन् 957 में चित्रकूट, करेडा (भूपाल सागर), पलाना (खेमली के पास), बागौर (नाथद्वारा से 3 किमी दूर) और खाखड़ (उदयपुर-फलासिया के मार्ग में) पांचों स्थानों पर सन् 957 में निर्माण कार्य प्रारंभ करवा कर 15 वर्षों में सन् 972 में पूर्ण करवा दिया। प. पू. आचार्य यशोभद्रविजय बड़े प्रसन्न हुए और पांवों जिनालयों की प्रतिष्ठा एक ही दिन वैशाख सुदी एकम् सम्वत् 1029 (सन् 972) को करने की स्वीकृति प्रदान की। तय तिथि पर बड़े भव्य समारोहों में पांचों जिनालयों की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई और सिमंदरशाह को जैन धर्म में प्रवेश देकर उसे तलेसरा गौत्र प्रदान की, क्योंकि उसने सात बीस देवरी मंदिर की नीव में मजबूती के लिए चार हजार मण तेल डाला था।
सातबीस देवरी के इस तीन मण्डप वाले पश्चिमोभिमुख मंदिर के चारों ओर गलियारों में 26 देवरियाँ होने से इसे सातबीस देवरी मंदिर कहा जाने लगा। मुख्य मंदिर में गर्भगृह, अन्तराल, सभा मण्डप, मण्डप, त्रिक मंउप एवं मुख मंडप युक्त मंदिर का जंघा भाग देवी देवताओं एवं अप्सराओं की मूर्तियों से अलंकृत है। मूल मंदिर में तथा गलियारों की देवरियों में 47 पाषाण मूर्तियाँ है।
मूलनायक आदिनाथ भगवान के दाएँ बाएँ भगवान शान्तिनाथ एवं अजीतनाथ की प्रतिमाएँ है। मुख्य मंदिर के बाहर सेवा के दृश्य है। नीचे के माण्डप के वितान में कई सुन्दर दृश्य है इसमें 16 नर्तकियों को अंकित किया हुआ है। यहाँ भगवान आदिनाथ की जीवन-लीला के कई दृश्य उत्कीर्ण है। मंडोवर पर कई प्रतिमाएँ बनी है। नीचे के मुख्य भाग में चकेश्वरी, लक्ष्मी, क्षेमकरी, ब्राह्मणी, महासरस्वती आदि की प्रतिमाएँ है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर विविध प्रकार के कोरणी, तोरणद्वार, मण्डप आदि सभी पर की गई शिल्पकारी स्तब्धकारी है जो असाधारण कला कौषल का भव्य प्रदर्शन करती है। गुंबज में जड़ी हुई देवियों की सजीव पुतलियाँ शिल्पियों की मुलायम छेनियों से सजीव लगती है। सम्पूर्ण मंदिर में 163 पत्थर के कलात्मक स्तंभ है जो मेवाड़-देलवाड़ा, रणकपुर, कुंभारिया आदि मंदिरों की शिल्प कला के समान है। मंदिर के जैन स्थापत्य समकालीन वास्तुशैली से भिन्न नहीं है किन्तु इसकी पवित्र सादगी, कामुक दृश्यों का अभाव, विपुल अलंकरण एवं स्थान के सात्विक वातावरण में अनोखा आकर्षण है।
इस सात बीस देवरी मंदिर समूह के पूर्व में विशाल प्रांगण के पश्चात् दो पूर्वाभिमुख मंदिर है जिनकी बाहरी दीवारों का शिल्प चमत्कृत करने वाला है। उत्तर दिशा के पाश्र्वनाथ प्रभु के मंदिर का निर्माण 1448 सन् में भंडारी श्रेष्ठी (सभवतः वेला) जिन्होंने श्रृंगार चंवरी का भी जीर्णोद्धार कराया था, द्वारा निर्मित है। इसके गंभारे में 3 मूर्तियाँ है।
गंभारे के बारह के बड़े आलियों मंे उत्तर में चित्तौड़ उद्धारक आचार्य विजय नीतिसूरिश्वरजी की एवं दक्षिण में युगान्तरकारी आचार्य हरिभद्र सूरिजी की सुन्दर एवं भव्य पाषाण मूर्तियाँ विराजित है जिनकी प्रतिष्ठा आचार्य विजयहर्षसूरि द्वाा सन् 1955 में की गई थी। मंदिर के प्रवेश द्वार पर लेख है जिसमें सन् 198 में अहमदाबाद के श्री मगनलाल खुशालदास सुतरिया द्वारा प्रतिष्ठा का उल्लेख है, जिन्होंने 1941 में मूल मंदिर में भी जीर्णोद्धार/प्रतिष्ठा करवाई थी।
दक्षिण दिशा के पूर्वाभिमुख पाश्र्वनाथ मंदिर का निर्माण तोलाशाह दोशी व उनके पुत्र कर्माशाह दोशी द्वारा सन् 1530 में करवाया गया था। इसके गंभारे में तीन पाषाण मूर्तियाँ है। देवरी में पद्मावती मां की सुन्दर मूर्ति है। बाहर देवरी में दो एवं प्रभु की एक पाषाण प्रतिमा कुल 7 प्रतिमाएँ है।
श्री सातबीसदेवरी जैन मंदिर के मूल मंदिर का निर्माण कार्य होने पर वैशाख सुदी एकम संवत् 1029 तद्नुसार सन् 972 को आचार्य यशोभद्र सूरिजी द्वारा भव्य प्रतिष्ठा करवाई गई थी। तत्पश्चात् इसके भव्य परिसर में पिछले एक हजार से अधिक वर्षों में समय पर निर्माण/जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठाएँ होती रही। पहले 26 देवरियाँ, फिर अलग-अलग समय पर देवरी नं. 1 एवँ 26 से लगती बड़ी देवरियों का अलग-अलग समय पर निर्माण, फिर पीछे के पूर्वाभिमुख दोनों मंदिरों का अलग समय पर निर्माण एवं जीर्णोद्धार होते रहे। बड़ा जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा का कार्य संवत् 1998 से संवत् 2005 तक (सन् 1941 से 1948) तक चलता रहा। इन सात वर्षों के जीर्णोद्धार का आर्थिक व्यय अहमदाबाद के सेठ भगुभाई चुन्नीलाल सुतरिया तथा भोगीलाल, मगनलाल सुतरिया द्वारा चित्तौड़ उद्धारक श्री विजयनीतिसूरि के सदुपदेश से किया गया। जीर्णोद्धार के पश्चात् मुख्य मंदिर की भव्य प्रतिष्ठा प. पूज्य आचार्य विजयनीति सूरिश्वर जी द्वारा ही सम्पन्न होनी थी पर दुर्भाग्य से आचार्यश्री का रणकपुर से चित्तौड़गढ़ प्रतिष्ठा प्रसंग हेतु पधारने के बीच माघ वदी तीज सं. 1998 (सन् 1941) को एकलिंग जी में अचानक काल धर्म हो गया। इस हृदय विदारक दुर्घटना के उपरान्त आचार्यश्री की इच्छानुसार प्रतिष्ठा समारोह उन्ही के द्वारा प्रदत्त मुहूर्त माघ सुदी द्वितीया सं. 1998 (सन् 1941) को ही सम्पन्न किया गया, जिसे भव्य समारोह में पूज्य आचार्य विजयहर्षसूरि ने पूरा किया।
इस भव्यातिभव्य समारोह में आचार्य विजयहर्ष सूरिजी के 18 ठाणा के अलावा पूज्य उपाध्याय दयाविजय (आचार्य श्री के गुरूभाई) मुनि चरणविजय, मुनि मलयविजय, पन्यास मनोहर विजय जी, पन्यास सम्पतविजय आदि ब्यावर से पधारे। मुनि भदं्रकार विजय, मुनि उम्मेद विजय, मुनि चंपकविजय आदि संत उपस्थित थे। विधिकारक श्री चंदूलाल मोतीलाल थे। संवत् 1998 की पौष वदी ग्यारस को सिरोही निवासी सेठ हीरालाल एवं तेरस को अहमदाबाद निवासी गोकुलचंद तेजपाल की ओर से स्वामीवात्सल्य का आयोजन हुआ। माघ सुदी एकम को जामनगर निवासी चुन्नीलाल लक्ष्मीचन्द संघवी द्वारा रथ यात्रा एवं स्वामीवात्सल्य व माघ सुदी द्वितीया को प्रतिष्ठा एवं समस्त कार्यक्रमों का लाभ सेठ भगुभाई चुन्नीलाल सुतरिया अहमदाबाद वालों के द्वारा लिया गया। गुजरात, मुंबई, अहदामबाद, मारवाड़, मेवाड़ मालवा आदि क्षेत्रों से हजारों श्रावक-श्राविकाएँ भी इस अनूठे आयोजन में सम्मिलित हुए थे। ऐसा भव्यातिभव्य समारोह दुर्ग पर पूर्व में संभवतः आचार्य जिनदत्तसूरि के आचार्य पद ग्रहण करने के समय सं. 1169 वैशाख कृष्णा छठ (सन् 1112) को उपस्थित हुआ था जब धोलका नरेश स्वयं अपनी पूरी राज्य परिषद् के साथ समारोह में पधारे थे।
रामपोल से उत्तर की ओर जाने पर रतनसिंह राजमहल एवं रत्नेश्वर तालाब के पास छोटा सा कलात्मक भगवान शांतिनाथ जी का मंदिर है जिसे सन् 1175 में बनाये जाने का लेख है। भगवान श्री शांतिनाथ की 31 इंच सुन्दर प्रतिमा की प्रतिष्ठा सन् 1444 में सोमसुन्दरसूरि द्वारा किये जाने का उल्लेख प्रतिमाजी पर है।
इसी परिसर से जुड़े देरासर में भगवान महावीर मूलनायकजी है जिनकी श्याम प्रतिमा पर सन् 1498 में जिनदत्तसूरिजी (द्वितीय) द्वारा प्रतिष्ठा करवाए जाने का उल्लेख है। इसी प्रतिमा के दांये अजितनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा 1053 सन् में गुणचन्दसूरिजी का लेख है। मूलनायक के बांये सुमतिनाथ भगवान की प्रतिमा है जिसकी प्रतिष्ठा सन् 1141 में कनकचन्द्र द्वारा कराये जाने का लेख है। आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के समय उनके सदुपदेश से सन् 1110 तद्नुसार संवत 1167 में कई संदर्भ लेखों में भगवान महावीर स्वामी जी के मंदिर बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। संभवत्ः यह वही मंदिर है।
उपरोक्त दोनों मंदिरांे का जीर्णोद्धार सन् 1914 में फतहसिंहजी दरबार के समय शाह मोतीलाल चमनलाल चपलोत द्वारा करवाया गया था।
गौमुख कुण्ड पर सुकोशल मुनि के मंदिर के ऊपर इस चैमुखे मंदिर को चैमुखा पाश्र्वनाथ भगवान का मंदिर कहा जाता है, एक प्रतिमा पर 1491 सं. का लेख है। अभी उपरोक्त दोनों मंदिर लम्बे समय से न्यायिक वाद चलने से, बहुत आसातना के साथ एक पुजारी संभाल रहा है।
किले पर गौमुख कुण्ड के पास स्थित इस मंदिर में एक कमरे में दीवार पर एक ही पाषाण पर बनी हुई श्री पाश्र्वनाथ, श्री कीर्तिधर मुनि, श्री सुकौशलमुनिजी की 9'' की प्रतिमाओं के पास ही सिंहनी की मूर्ति है। ऊपर कन्नड़ भाषा में लेख उत्कीर्ण है व एक लेख प्राकृत में सं. 1543 में जिनसमुद्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठा का है।
400 वर्ष पुराना यह जैन मंदिर दुर्ग की तलहटी में शहर के जूना बाजार में स्थित है। इसे धीग गौत्र वालों ने बनवाया था। प्रवेश द्वार की कलात्मक छतरी पर चार कोनों पर चार धीग श्रावक बैठे हुए दर्शाए गए है। मंदिर के बाहर लगे दो शिलालेखों के आधार पर पहला जीर्णोद्वार सं 1887 में एवं बाद का महाराणा सज्जन सिंह के समय का सं 1941 की पोष बदी आठम को पूर्ण हुआ, जिसे जुवारमलजी, हरकचंदजी के बेटे खेमराजजी उदयपुर वालों का आर्थिक सहयोग प्रापत हुआ। मंदिर से बाहर निकलते हुए चिंतामणि पाश्र्वनाथ की पुरानी मूर्ति देवरी में सुशोभित है। प्रभु की कुल चार प्रतिमाएँ 10 धातु प्रतिमाएँ एवं यंत्र है। मंदिर से जुड़ी हुई जगह उपाश्रय के लिए रखी गई थी जिसमें पूजा प्रक्षान की व्यवस्था हेतु कुआं भी था। मंदिर की सेवा पूजा एवं व्यवस्था सुचारू रूप से व्यवसिथत करने हेतु एक ट्रस्ट मंडल की स्थापना सन 1981 में ''श्री जैन श्वेताम्बर ऋषभदेव ट्रस्ट मंदिर, चित्तौड़गढ़'' के नाम से की गई।
यहाँ विहार करके आने वाले साधु भगवंतों द्वारा मंदिर में दृष्टि दोष ठीक करने एवं मूल नायक ऋषभदेव भगवान के स्थान पर चित्तौड़गढ़ की मूल राशि के आधार पर मूलनायक भगवान महावीर की प्रतिमा स्थापित करने का आग्रह रहा जिस हेतु श्रद्धेय कुमार पाल भाई वि. शाह के निर्देशन में एवं मेवाड उद्धारक जितेन्द्र सूरि म. सा. की निश्रा में एवं माटूंगा निवासी श्रीमती जैकुंवर बेन व श्री अमृतलाल शाह के सुपुत्र श्री नरेश भाई शाह परिवार के आर्थिक सहयोग से जीर्णोद्धार हुआ एवं वैशाख सुदी छठ सं 2050 तदनुसार दि. 28.4.1993 को भव्य समारोह के साथ प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।
1444 ग्रंथों के रचयिता जैन, वैदिक एवं बौद्ध तीनों दर्शनों के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य हरिभद्रसूरि जी के महान अवदान को देखते हुए श्रद्धा स्वरूप उनका स्मृति मंदिर पद्मश्री मुनि जिन विजय जी ने अपनी स्व अर्जित पूंजी से निर्मित करवाया। इसकी प्रतिष्ठा माघ शुक्ला 13 सं. 2029 तदनुसार दि. 15.2.73 को आचार्य श्री उदयसागरजी म. सा. की निश्रा में हुई थी।
यह चार मंजिला मंदिर है जिसमें प्रथम मंजिल पर उपाश्रय व ज्ञान भंडार है। द्वितीय मंजिल पर श्री हरिभद्रसूरि जी की 41'' की भव्य प्रतिमा के साथ उनकी धर्म माता साध्वी श्री याकिनी महत्तरा, श्री जिनभद्रसूरि, श्री जिनदत्तसूरि, श्री वीरभद्रसूरि एवं श्री जिनभद्रसूरि की प्रतिमाएँ है। दोनों तरफ श्री जिनेश्वर सूरि एवं श्री अभय देव सूरि की प्रतिमाएँ है। बाहर निकलते समय बाद में प्रतिष्ठित काला भैरव एवं गोय भैरव जी की प्रतिमाएँ है। अन्य देवरियों में श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री जिनवल्लभसूरि एवं श्री जिनदत्तसूरि, श्री सिद्धर्षि, श्री उद्योतनसूरि एवं श्री पुण्यविजय जी की प्रतिमाएँ है। मुनि श्री जिनविजय जी भी आचार्य श्री हरिभद्र सूरि के चरणों में वन्दन करते हुए दर्शाए गये है। इस तरह मुनि श्री जिनविजय जी ने न सिर्फ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि बल्कि उन सभी आचार्यो एवं साध्वियों को श्रद्धास्वरूप चंदन किया है जिन्होंने चित्तौड़गढ़ में रहकर जैन धर्म को अथाह अवदान दिया है। तृतीय एंव चतुर्थ मंजिल पर प्रभु प्रतिमाएँ विराजित है।
इस पुण्यस्थली पर पधारने वाले साधु भगवंतों एवं मुनि श्री जिनविजय जी की परिकल्पना को पूर्णता प्रदान करने हेतु श्री हरिभद्रसूरि स्मृति मंदिर परिसर में ही श्री नाकोड़ा भैरव व श्री नाकोडा पाश्र्वनाथ मंदिर एवं साधु साध्वियों के विश्राम एवं आराधना हेतु पाडनपोल पर श्री हरिभद्रसुरि मन्दिर परिसर में ही आराधना भवन के निर्माण की योजना बनी। तदनुरूप दिनांक 18 अपे्रल 2008 को नाकोड़ा भैरव की 41'' पीत पाषाण की सुन्दर मूर्ति की प्रतिष्ठा परम पूजय मणिरत्न सागर जी म. सा. की निश्रा में सम्पन्न हुई श्री नाकोडा भैरव जी की मूर्ति भराने का लाभ सुश्रावक श्री जीवराज जी खटोड परिवार द्वारा लिया गया। श्री जीवराज जी खटोड ने निर्माणाधीन नाकोडा पाश्र्वनाथ भगवान की मूर्ति भराने का श्री लाभ लिया है।
श्री कन्हैयालाल जी महात्मा के संरक्षण में श्री जीवराज जी खटोड़ श्री भगवतीलाल जी नाहटा एवं अन्य ट्रस्टियों के सहयोग से मन्दिर निर्माण कार्य दु्रत गति से चल रहा है।
उदयपुर रोड पर श्री सांवलियाजी चिकित्सालय चित्तौड़गढ़ के सम्मुख स्थित आदिनाथ दादा के इस सुन्दर मंदिर की प्रतिष्ठा 3 मई 1985 को मेवाड़ उद्धारक श्री जितेन्द्रविजय जी म. सा. की निश्रा में हुई थी। रेल्वे स्टेशन से सवा कि.मी. दूर इस मंदिर के साथ आचार्य श्री भुवनभानू सुरि जैन उपाश्रय व आयंबिल शाला एवं श्री सागर आराधना भवन जुड़े हुए है। चित्तौड़गढ़ के मूर्ति पूजक जैन समाज का केन्द्र बिन्दु यही मंदिर है।
इस देरासर में मुनिश्री सुव्रतस्वामी की प्रतिमा विराजित है, जिसकी अंजनशलाका विजयनगर देरासर मंे होकर यहाँ सन् 1989 में पधराई गई थी। मंदिर जी में 6 अन्य प्रभु प्रतिमाएँ, देवी की प्रतिभा एवं सिद्धचद्र यंत्र है। यह मंदिर श्री केसरियाजी जैन गुरूकुल परिसर में है एवं यहाँ संचालित श्री भुवन भानूूसूरि उच्च प्राथमिक विद्यालय के छात्रों हेतु प्रेरणा-पुंज है।
11 वी-12 वी शताब्दी तक चित्तौड़ दुर्ग उद्भट दिगम्बर आचार्यो का केन्द्र रहा है। ठेठ दखिण से लेकर मथुरा तक के मुनि भगवंत यहाँ आते रहे है, जिन्होंने यहाँ काफी साहित्य का निर्माण किया। एक समय पर यहाँ दिगंबर श्रावकों की बड़ी संख्या रहती थी। पास के गंगसर, सेणवा आदि गाँवों के शिलालेख इन बातों की पुष्टि करते है। इस अवधि में निश्चित रूप से दुर्ग पर कई दिगम्बर मंदिर भी बने होंगे लेकिन आज केवल एक चैत्यालय मल्लिनाथ जी भगवान का है, जो कीर्तिस्तंभ से सटा हुआ है।
चित्तौड़ दुर्ग पर अपने समय के सबसे ऊँचे एवं अनूठे शिल्प के जैन कीर्तिस्तंभ के समीप स्थित यह दिगम्बर मंदिर 'महावीर प्रासाद' के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। महाराणा हमीर के समय मुलतः यह मंदिर चंद्रप्रभुज जिनालय था। अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय मूल मंदिर खंडित कर दिया गया था।
जिसे ई. 1428 की महावीर प्रासाद प्रशस्तिं के अनुसार श्वेताम्बर श्रेष्ठी गुणराज ने सोमदेवसूरि के हाथों जीर्णोद्धार कर प्रतिष्ठा करवाई थी एवं कीर्तिस्तंभ का भी जीर्णोद्धार करवाया था। महावीर प्रासाद का जीर्णोद्धार बाद में ई. 1979 में भी हुआ है, जिसे दिगम्बर श्रेष्ठी ने करवाया। इस मंदिर में आज भगवान श्री मल्लिनाथ जी की मूर्ति विराजित है।
चित्तौड़गढ़ नगर में ढूंचा बाजार स्थित मंदिर 1845 ई. में बना हुआ है, जिसे श्रेष्ठी श्री रयोजी रामजी बैद द्वारा बनवाया गया था। मंदिर जी के ऊपर साधु संतों के ठहरने की व्यवस्था है व मंदिर जी के बाहर दुकानें भी निर्मित है।
श्री दिगम्बर जैन समाज द्वारा निर्मित इस सुन्दर मंदिर की प्रतिष्ठा मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी म. सा. की निश्रा में दिसम्बर 2005 में हुई। यह मंदिर दिगम्बर समाज की सभी गतिविधियों का केन्द्र बन गया है।
26500 वर्ग फुट के विशाल क्षेत्र में फैले इस मांगलिक धाम का निर्माण कार्य प्रगति पर है। इसमें मंदिर, संत निलय (आवास एवं आहार हेतु), यात्रियों के लिए 26 कमरे, भोजनशाला, 32 दुकानों एवे बेसमेंट में 2 बड़े हाॅल का निर्माण प्रस्तावित है।
जैन गौरव का यह अद्भुत कीर्ति-स्तंभ 76' ऊँचा 32' धरातलीय व्यास, 15' ऊपरी व्यास व 69 सीढ़ियों एवं सात मंजिलों से युक्त है जो भगवान आदिनाथ को समर्पित है। महाराणा कुम्भा द्वारा लगभग 300 वर्षों बाद विजय-स्तंभ का निर्माण कीतिस्तंभ की अनुकृति की तरह करवाया गया था। इसके निर्माण काल के संबंध में अलग-अलग इतिहासकारों एवं वास्तुविदों के अलग-अलग मत रहे है। जहां कनिंघम, हावेल आदि इसे वी सदी में निर्मित मानते है वहीं भंडारकर ने इसका समय 11 वीं सदी माना । फरग्यूशन ने 12 वी सदी में श्वेताम्बर राजा कुमारपाल के समय का माना, तो के. सी. जैन व मधुसूदन ढ़ाकी ने इसे ...वी सदी में निर्मित माना। उपर्युकत सभी व अन्यों के तथ्यों के खंडन-मंडन के बाद आज के अधिकांश विद्वान इसे 11-12 वी शताब्दी के बीच में निर्मित मानने को सहमत है।
इसका निर्माण श्रेष्ठी नय के पुत्र जीजा एवं उसके पुत्र पुण्यसिंह ने (11-12 वीं शताब्दी) में किया था, जो बघेरवाल दिगम्बर जैन थे। इसका जीर्णोद्धार सं. 1485-1495 में श्रेष्ठि गुणराज के पुत्र वाल ने करवाया एवं जीर्णोद्धार पश्चात् देवकुलिकाओं को सुशोभित कर, तीन जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा मुनि सोमसुन्दर सूरि से करवाई थी। अतः जब विजय-स्तंभ का निर्माण महाराणा कुम्भा द्वारा करवाया जा रहा था, उसी समय कीर्ति-स्तंभ का जीर्णोद्धार करवाया जा रहा था।
Jainism is unique in preaching kindness to all animals and in preaching the need to give protection to all animals. I have not come across such a principle of benevolence in any other religion.
By Ordi Corjeri
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