FREE Equity Delivery and MF
Flat ₹20/trade Intra-day/F&O
|
Published on Friday, January 19, 2018 by Dr A L Jain | Modified on Monday, February 19, 2018
भारतीय इतिहास की पुस्तकों मे जैन स्त्रोतों का अति अल्प प्रयोग देखते है, जबकि जैन मुनियों द्वारा रचित अधिकांश इतिहास राग मोह से अलिप्त होने के कारण अधिक प्रामाणिक है। इन मुनियों ने भारतीय इतिहास एवं साहित्य की जो सेवाऐं की है, वे अमूल्य है। जैन आचार्यों, यतियों, मुनियों और श्रावकों ने भारतवर्ष के कोने-कोने में प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंष भाषाओं के साहितय का सृजन कर अपने ज्ञान भण्ड़ारों मंे सुरक्षित भी रखा है। जैन आचार्य प्रारम्भ से विद्याव्यसनी होे आए है इसका प्रभाव समाज पर भी पड़ा है। चित्तौड़गढ़ जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है इस कारण यहाँ कई प्रख्यात् आचार्यों द्वारा कालजयी रचनाओं का सृजन किया गया जिसमें अपने काल के राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण का भी उल्लेख मिलता है। राजस्थान का संभवतः प्रथम प्राकृत दर्शन ग्रंथ ‘सम्मई सूत्र’ आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने 5 वी शताब्दी में लिखा था। सिद्धसेन दिवाकर के चित्तौड़ पधारने का उल्लेख वि. स. 1314 में प्रभाचन्द्रसूरि रचित ‘प्रभावक चरित एवं 1405 में दिल्ली में रचित राजषेखरसूरि के ‘प्रबन्ध कोष’ में मिलता है। राजा देवपाल ने इन्हें ‘दिवाकर पद से विभूषित किया था।
बाद में हरिभद्रसूरि ने चित्तौड़ में समराइच्च कहा, धूर्ताख्यान, योगषतक, धम्म संग्रहणी आदि 1444 ग्रंथों एवं उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला आदि ग्रंथों की रचना कर राजस्थान में प्राकृत साहित्य को समृद्ध किया। इसी समय आचार्य वीरसेन से प्रसिद्ध ग्रंथ ‘षटखण्डागम’ पर ‘धवला’ नामक टीका लिखी। उसमें 72 हजार ब्लोक प्राकृत एवं संस्कृत में है। हरिषेण नामक विद्वान आचार्य ने इस नगरी में ‘धम्म परिक्खा’ नामक ग्रंथ लिखा। इसमंे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति का उत्तम साधन प्रतिपादित किया गया है।
जैन समाज मंे प्रतिदिन किये जाने वाले पाठ ‘शान्तिकरं’ स्तोत्र की रचना सोमसुन्दरसूरि ने की थी। इन्होंने कीर्तिस्तंभ के पाश्र्व मंे स्थित ‘महावीर प्रासाद’ का पुनरुद्धार 1495 वि. सं. में कराया था। धर्मपाल की ‘तिलक मंजरी’ से प्रभावित होकर राजा भोज ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था।
चरित्र रत्नगणि ने ‘चित्रकूट प्रशस्ति’ की रचना 15 वीं शताब्दी में की थी। इसमें गुणा कुम्भा के साथ-साथ चित्तौड़ का भी बहुत सुन्दर वर्णन है (गढ़, चित्तौड़’ में रचित जैन साहित्य-मथुरा प्रसाद अग्रवाल) जिनहर्षगणि ने कुम्भा के राज्यकाल में संवत् 1497 में चित्तौड़ में ‘वस्तुपाल चरित्र’ की रचना की थी। वस्तुपाल 13 वी शती के महान कलाप्रेमी विद्वान थे। इनके द्वारा ‘देलवाड़ा’ व अन्य स्थानों पर बनवाये गये अद्भुत शिल्प के मन्दिर विश्व प्रसिद्ध है।
महाकवि डड्ढा ने ‘पंच संग्रह’ की रचना की थी। हीरानन्दसूरि, राणा कुम्भा के समय के महान विद्वान थे। राणा कुम्भा इन्हें अपना गुरू मानते थे तथा इन्हें ‘कविराज’ की उपाधि से सम्मानित किया था। इसी उपाधि से कुम्भा ने वाचक सोमदेव को भी सम्मानित किया था। इनकी तुलना विद्वता में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर से की जाती है। प्रतिष्ठा सोम ने ‘सोम सौभाग्य’ काव्य एवं ‘कथा महोदधि’, जिसमें चित्तौड़ का सुन्दर वर्णन है, की रचना की थी। विशालराज ने ‘ज्ञान प्रदीप’ की रचना वि. सं. 1497 में की थी। ऋषिवर्द्धन ने वि. सं. 1512 में ‘नलराज चउपई’ (नल दमयंती रास) की रचना की थी। राजसुन्दर ने वि. सं. 1556 मंे महावीर स्तवन की रचना की थी। महाराणा रायमल के समय वि. सं. 1563 में राजशील ने ‘विक्रम खापर चरित्र’ की रचना की थी। आचार्य पाश्र्वचन्द्रसूरि एवं गजेन्द्र प्रमोद ने ‘चित्रकूट चैत्य परिपाटी’ की रचना की थी। खरतरगच्छीय कवि खेतल ने वि. सं. 1748 में ‘चित्तौड़गजल’ की रचना की थी। ऋषि धनराज ने ‘अनंत चैबीसी’ की रचना की थी।
इन साहित्यकारों ने न केवल जैन धर्म बल्कि वैदिक धर्म बौद्ध धर्म पर भी साहित्य की रचना की है।
<< 5. दानवीर जैन श्रेष्ठी7. शिलालेख एवं प्रशस्तियाँ >>
Add a public comment...
Rs 0 Account Opening Fee
Free Eq Delivery & MF
Flat ₹20 Per Trade in F&O
FREE Intraday Trading (Eq, F&O)
Flat ₹20 Per Trade in F&O
|