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चित्तौड़गढ़ & जैन धर्म - 8. रोचक एवं ऐतिहासिक तथ्य

Published on Friday, January 19, 2018 by Dr A L Jain | Modified on Monday, February 19, 2018

  1. श्री सात बीस देवरी मंदिर के निर्माण के समय चार हजार मण तेल इसकी नीव में डाला गया था क्योंकि इसके निर्माता सीमंदर शाह को गजधधर नामक व्यक्ति ने कह दिया था कि इससे मंदिर की आयु कम से कम 1500 वर्ष की हो जावेगी।
  2. आचार्य यशोभद्र सूरिजी बहुत चमत्कारी संत थे, उन्होंने सीमंदर शाह द्वारा निर्मित पांचों मंदिरां-चित्तौड़गढ़, भूपालसागर,पलाना, बागोल एवं खाखड़ की प्रतिष्ठा एक ही दिन वैशाख सुदी एकम् संवत 1029 तद्नुसार सन् 972 को की थी।
  3. आचार्य सोमप्रभसूरि की दीक्षा 11 वर्ष के बाल्यकाल में हुई थी और अपनी विद्वता और कर्मठता से उन्होंने 22 वर्ष की अल्पायु में सूरि पद प्राप्त कर लिया था।
  4. किसी समय चित्तौड़गढ़ क्षेत्र में 300 मंदिर थे एवं जैनियों की बहुत आबादी थी।
  5. चित्तौड़गढ़ के कई अजैन मंदिरों-कुंभ श्याम मंदिर, मीरा मंदिर, समिद्धेश्वर मंदिर आदि मंदिरों में जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ उकरी हुई है जिससे उस समय के समाज की समरसता का प्रमाण मिलता है।
  6. महाराणा समरसिंहजी की माता जयतल्ली देवी द्वारा पाश्र्वनाथ भगवान का मंदिर सन् 1265 में बनवाया गया एवं सन 1294 में महाराज समरसिंह द्वारा ग्यारह जिन मंदिरों में मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई गई थी।
  7. आचार्य हरिभद्र चित्तौड़गढ़ के निवासी थे। यहाँ के राज पुरोहित एवं पक्के ब्राह्मण थे। जैन मंदिर में जाने की बजाय हाथी के पैर तले कुचले जाना पसंद करते थे पर बाद में जैन धर्म स्वीकारने पर 1444 ग्रंथ रचे और कहा-‘‘हा अणाहा कहं हुं तो, जई न हुंतो जिणातामो’’ अर्थात् हम अनाथ हो जाते अगर हमें जिनागमों की प्राप्ति नहीं होती।
  8. जैन कीर्ति-स्तंभ बघेरवाल जीजा ने 11-12 वी शताब्दी में बनवाया था। यह दिगंबर आमना का है, लेकिन बाद में इस स्तंभ का जीर्णोद्धार श्वेताम्बर राजा कुमार पाल द्वारा करवाया गया था।
  9. नान्दशा गांव से वि. सं. 125 का स्तंभ लेख मिला, जिसमें जैन राजा खारवेल द्वारा राजसूय यज्ञ करवाए जाने का उल्लेख है।
  10. खतरगच्छ आचार्य जिनवल्लभसूरि चित्तौड़ के रहने वाले थे।
  11. 23 फरवरी 1680 को औरंगजेब ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर 63 मंदिरों को नष्ट किया था जिनमें अधिकतर जैन मंदिर थे। इससे पूर्व अकबर के समय 36 मंदिर नष्ट हुए थे।
  12. श्वेताम्बर सूत्रों के अनुसार राजा अल्लट के समय श्वेताम्बरों एवं दिगम्बरों के मध्य वाद विवाद हुआ था जिसमें श्वेताम्बर साधु प्रद्युम्नसूरि विजयी हुए थे।
  13. 12 वीं शताब्दी का दिगंबर जैनों का चित्तौड़ दुर्ग पर बड़ा प्रभाव था। दक्षिण भारत एवं मथुरा से कई दिगंबर साधु किले पर आया करते थे।
  14. महाराणा अल्लट, महाराजा खारवेल, महाराणा रणमल, महाराजा कुमारपाल, महाराणा समरसिंह, महाराणा कुंभा, महाराणा रायमल, महाराणा मोकल आदि के समय जैन धर्म की बड़ी प्रगति हुई।
  15. चित्तौड़गढ़ निवासी कर्माशाह दोशी ने गुजरात के राजा बहादुरशाह की विपत्ति के समय बड़ी मदद की थी इसके फलस्वरूप बाद में बहादुरशाह ने शत्रुंजय में तीर्थ उद्धार की अनुमति दी एवं वहाॅ जाने वाले श्रद्धालुओ पर से कर समाप्त कर दिया।
  16. आचार्य जयकीर्ति के शिष्य ऋषिवर्द्धन ने वि. स.ं 1512 में नल≠ंती रासों चित्तौड़गढ़ में लिखा था।
  17. चित्तौड़गढ़ से 12 किमी दूर के आज के नगरी गाँव से महावीर के निर्वाण के 84 वर्ष बाद का शिलालेख मिलने का उल्लेख है। जिसमें उनके बामणवाडजी से मंदसौर जाते हुए माध्यमिका (नगरी चित्तौड़) प्रवास की टिप्पणी है। मौर्यकाल तक नगरी पूरे वैभव से प्रतिष्ठित थी। महाभारत के सभा पर्व 32, 8 में यहाँ प्रकांड विद्वानों का निवास बताया था। कालिदास ने मेघदूत में यहाँ की गंभीरी नदी का वर्णन किया है। पंतजलि ने लिखा कि ग्रीक एवं यवनों की निगाहें ‘नगरी’ पर थी। उस समय नगरी पाटलिपुत्र के बाद सबसे सुन्दर नगर था।
  18. राजा कुमारपाल सं. 1216 में चित्तौड़गढ़ में जैन धर्म के अनुयायी बने।
  19.  गंभीरी नदी के पुल के नीचे 1324 वि. सं. का जैन लेख है जिसमें तेजसिंह के काल में भगवान महावीर की मूर्ति की प्रतिष्ठा का लेख है।
  20. किसी समय सातबीस देवरी जैन मंदिर एवं जैन कीर्ति-स्तंभ के बीच का क्षेत्र जैन मंदिरों से भरा पड़ा था।
  21. खरतरगच्छ आचार्य जिनवल्लभसूरि का देवलोक 1167 वि. सं में चित्तौड़गढ़ में हुआ था। उनके शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरिजी को सूरिपद सं. 1169 में चित्तौड़ में ही प्रदान किया गया था, जिसमें धोलका नरेश अपनी मंत्री परिषद् सहित उपस्थित थे। इसमें लक्ष्मणपाल भुवनपाल दोशी द्वारा स्वामीवात्सल्य किया गया था।
  22. दिगंबर सूत्रों के अनुसार जिनसेनाचार्य के गुरु वीरसेनाचार्य ने चित्तौड़गढ़ के ऐलाचार्य से दीक्षा प्राप्त की थी एवं यहाँ से ही बड़ोदा जाकर धवला टीका पूर्ण की थी।
  23. अलाउद्दीन खिलजी ने आचार्य रामचन्द्रसूरि को एवं मोहम्मद तुगलक ने आचार्य रत्नशेखर, जिनप्रभसूरि एवं अकबर ने जिनचन्द्रसूरि को लाहौर में युग प्रधान एवं उनके शिष्यों को अलग-अलग उपाधियाँ प्रदान की थी। जहाँगीर ने आचार्य विजयदेव को ‘महातपा; की उपाधि से सम्मानित किया था।
  24. चित्तौड़गढ़ का राधवचेतन तुगलक के समय बहुत प्रभावशाली तांत्रिक व चमत्कारी व्यक्तित्व हुआ। बादशाहों ने इसे दिल्ली बुला लिया व वहाॅ सम्मानित किया। संभवतः इसी ने खिलजी को महारानी पद्मिनी के सौदन्र्य की चर्चा कर उकसाया था।
  25. भामाशाह एवं उनके भाई तारांचद ने मालवा पर आक्रमण से प्राप्त 20.000 स्वर्ण मुद्राएँ एवं 20 लाख रूपये महाराणा प्रताप को भेंट कर अपना संघर्ष जारी रखने का अनुरोध किया।
  26. भामाशाह के पुत्र जीवाशाह को महाराणा अमरसिंह ने भामाशाह की मृत्युपरांत (11.1.1600) मंत्री बनाया था।
  27. आचार्य जिनदत्तसूरि का देवलोक अजमेर में सं. 1211 में हुआ था। उनकी चिता पूरी प्रज्वलित होने के बाद भी उनकी मुंह पत्ती, चोल पट्टा व चादर जली नहीं थी। वे आज भी जैसलमेर के जैन संग्रहालय में है।
  28. 23.11.81 को लार्ड रिपन चित्तौड़ आए और कीर्ति-स्तंभ व अन्य स्मारकों की मरम्मत हेतु 24000 रुपया प्रतिवर्ष देने की स्वीकृति दी।
  29. वि. स. 79 में आचार्य देवगुरूसूरि एवं वि. सं. 215 से 235 तक यज्ञदेवसूरि के इस क्षेत्र में विचरण के प्रमाण मिलते है, अर्थात् आज से दो हजार वर्ष पूर्व भी चित्तौड़ में जैन धर्म प्रभाव में था।
  30. महान विद्वान, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने वीं शताब्दी में चित्तौड़गढ़ में ही रहकर अध्ययन किया व इसे अपनी कर्मभूमि बनाया तथा महाराजा विक्रमादित्य (उज्जैन) को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था।
  31. राजा नरवाहन की सीाा में बौद्ध, शैव एवं दिगम्बर जैनों के मध्य शास्त्रार्थ हुआ था, जिसमें प्रभाचन्द्र नामक दिगंबर साधु ने विजय प्राप्त की थी।
  32. खिलजी व अकबर के अत्याचारों से हजारो लोग मारे गये थे व बड़ी मात्रा में जैन मालवा व दक्षिण भारत चले गये थे। कीर्ति स्तंभ के निर्माता जीजा के वंशज भी तभी दक्षिणी भारत में चले गये थे, जिनमें पुनोजी खटोड़ भी थे।
  33. सन 1415 में भट्टारक शुभचन्द्र ने चित्तौड़गढ़ में दिगम्बर मूल संघ की स्थापना की थी।
  34. जैन धर्म का चित्तौड़गढ़ में स्वर्णिम काल दसवी से पन्द्रहवी शताब्दी तक था।
  35. दुर्ग पर अद्भुत शिल्प का जैन मंदिर है जिसे मुनिजी का मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर आज नाथ सम्प्रदाय के कब्जे में है। कहा जाता है कि बाबा गरीबदास ने अपने एक शिष्य के साथ इस सूने मंदिर में जीवित समाधि ली थी। वहाँ अब शिव लिंग स्थापित है एवं नाम कर दिया है बाबा निर्भयदास का मंदिर।
  36. दुर्ग पर कितने ही जैन मंदिर ऐसी खंडहर स्थिति में है कि उन पर कोई लेख या चिह्न भी नहीं बचा है केवल उनका शिल्प ही उन्हें जैन मंदिर की पहचान दिलाता है।
  37. आचार्य धर्मरत्न सूरि शत्रुंजय के लिए संघ ले जाते हुए चित्तौड़ पधारे तब महाराणा सांगा ने उनकी अगवानी की थी।
  38. पांचवी शताब्दी से ही चित्तौड़ प्रभावशाली जैन आचार्यों की विवरण भूमि रहा है, जिन्होंने यहाँ रहकर काफी साहित्य की रचना की, जिनमें आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हरिभद्रसूरि, कवि माहूक, भट्टारक शुभचन्द्र प्रभाचन्द्र, आचार्य सोम प्रभद्धय, रामकीर्ति, सोमदेव वाचक, हीरानंद सूरि, चरित्र गणि, जिन हर्ष गणि, धर्मरत्न सुन्दर गणि, महाकवि डड्ढा, हरिषेण जैसे उद्भट विद्वान थे।
  39. भगवान महावीर के निर्वाण के समय बहुत छोटे से छिद्र के माध्यम से प्रवेश हुआ शिथिलाचार हरिभद्र सूरि तक आते-आते बड़े आकार में परिवर्तित हो गया था, जिसके विरुद्ध उन्होंने ‘‘संबेध प्रकरण’’ में आवाज उठाई व इसकी निंदा की थी। कुछ समय बाद पुनः सभी कुछ प्रारंभ हो गया। बारहवी शताब्दी के प्रारंभ में आचार्य जिनवल्लभ सूरि ने ‘‘संघ पट्टक’’ नामक ग्रंथ में संघ में आए शिथिलाचार का वर्णन करते हुए लिखा कि मंदिरों में वेश्याओं के नृत्य व मंदिरों पर मठाधीशों के कब्जे हो गए थे। फलस्वरूप जिनेश्वर सूरि ने खरतरगच्छ की स्थापना के साथ पुनः शुद्धि प्रारंभ की थी।
  40. सं. 1393 के नाभिनंदन के ‘जीर्णोद्धार प्रबंध’ में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा राणा रतनसिंह को बंदी बनाने का उल्लेख एक मात्र ऐतिहासिक साक्ष्य है।
  41. कीर्ति-स्तंभ की छत बिजली गिरने से टूट गई थी, जिसे महाराणा फतहसिंह ने लगभग 80,000 रुपयों की लागत से इीक करवाया था।
  42. महारावल तेजसिंह के तीनों प्रधान जाल्हण, सीमंदर एवं कांगा जैन थे।
  43. गोमुख पर सुकोशल मुनि की गुफा में एक लेख कन्नड भाषा में लिखा हुआ लगा है जिससे इस क्षेत्र और कर्नाटक के जैन सूत्र जुडे होने की पुष्टि होती है।
  44. धार के प्रसिद्ध राजा भोज ने चित्तौड़गढ़ में कुछ समय शासन किया था। उसके राज्य में श्री कीर्ति प्रसिद्ध जैन साधु हुए थे।
  45. सम्राट् अकबर ने हीरविजय के सम्पर्क में आने के बाद अपने मंत्री कर्मचन्द बच्छावत की विनती के आधार पर आमारी (अहिंसा) की घोषणा की थी।
  46. सम्राट अकबर को उपाध्याय भानूचन्द्रजी हर रविवार को ‘‘सूर्य सहस्त्र नाम’’ का श्रवण करवाते थे।
  47. अकबर ने अपने अंतिम 22 वर्ष (सन् 1578 से 1600 तक) जैन धर्म के सम्पर्क में बिताए थे, उनके सम्पर्क में आचार्य हीरविजयजी के अलावा विजय सेनसूरि, उपाध्याय भानूचन्द्र, सिद्धिचन्द्र, जिनचन्द्रविजय रहे थे।
  48. पादरी एडवर्ड ने सन् 1615 के चित्तौड़ सफरनामे में लिखा है कि ‘‘अज तक यहाँ 200 से ज्यादा मंदिर और बहुत उम्दा पत्थर के लगभग एक लाख मकानों के खंडहर नजर आते है’’। (वीर विनोद) यह तथ्य इस बात की पुष्टि करता है कि उस समय तक सैकड़ों मंदिर यहां थे।
  49. जिन हर्षगणि ने 1440 में वस्तुपाल चरित्र की रचना चित्तौड़ के जिनेश्वर मंदिर में की थी।
  50. चरित्र सुन्दरगणि द्वारा 6675 श्लोक की रचना वी शताब्दी में हुई थी। ये श्लोक चित्तौड़ वीर चैतय प्रशिस्त में संकलित है।
  51. आचार्य हरिभद्रसूरि के कृतित्व को जन-जन तक पहुँचाने के कार्य में मुनि जिनविजयजी एवं हर्मन जेकोबी के अलावा कई मुनियों, साहित्यकारों व श्रेष्ठियों ने अभूतपूर्व कार्य किया है, जिनमें एक श्रेष्ठी सेवाडी मुंबई निवासी शा. सोहनलाल जी सूरजमल जी सुराणा भी है।
  52. राणा प्रताप ने एक पत्र हीरविजयसूरि को लिखा था, जिसमें उनहें मेवाड़ में उपदेश देने हेतु आमन्त्रित किया था। सन् 1578 में मेवाड़ी भाषा में लिखित यह पत्र जैन इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है (राजपूताना के जैन वीर- अयोध्या प्रसाद गोयलीय षप्ृठ 341-342)
  53. राजपूत राजा महेन्द्र चूड़ का पुत्र रत्न चूड़ विद्याधर प्रसिद्ध जैन संत हुए थे उन्ही को आचार्य रत्नप्रभसूरिजी के नाम से जाना जाता है। उन्होंने उपकेशपु पट्टन (आज का ओसियाजी) के एक लाख चालीस हजार लोगों को जैन धर्म में दीक्षित किया था।
  54. आचार्य स्वयंप्रभूसिरजी ने भीनमाल के श्रीमालों को जैन बनाया था, जो राजपूत थे।
  55. जैन धर्म के इतिहास में पहली बार आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी ने बड़ी संख्या में राजपूत, कायस्थ, ब्राह्मण, वैष्णव, माहेश्वरी आदि विभिन्न मत मतावलम्बियों को जैन मत में दीक्षित कर उन्हें विभिन्न गौत्रें प्रदान की थी। इस युगान्तकारी कार्य से जैन धर्म का सामाजिक उन्नयन और अधिक स्वीकार्यता प्राप्त हुई। यह एक अद्भुत कार्य था।
  56. दादा गुरूेदव श्री जिनदत्तसूरिजी के एक भक्त रासल शाह थे। उनके छः वर्षीय पुत्र को गुरुदेव ने उसके संस्कार देखकर दीक्षा प्रदान की। दो वर्ष के दीक्षित इस बाल साधु को नौ वर्ष की उम्र में वैशाख सुद 6 संवत् 1205 में आचार्य पद देकर अपने सुविशाल खरतरगच्छ की बागडोर सौंप दी और उन्हें नाम दिया श्री जिनचन्द्रसूरि, जो बाद में इतिहास पुरुष सिद्ध हुए। यह एक असामान्य घटना थी, जो गुरूदेव की प्रज्ञा एवं उनके निर्णय लेने की क्षमता और संघ पर अनुशासन का संकेत देती है।
  57. प्रभावक चरित्र के अनुसार जिनदत्तसूरि के काल में श्रीवादिदेवसूरि ने शास्त्रार्थ में श्री शिवमूर्ति को परास्त किया।
  58. 12 वीं शताब्दी मे चित्तौड़ दिगम्बर भट्टारकों की गदी थी। मूल संघ की पट्टावली से ज्ञात होता है कि चित्तौड़गढ़ में दस उत्तराधिकारी काल क्रम से बने।
  59. कीर्तिस्तंभ के पास के महावीर प्रसाद (आज का मल्लिनाथ भगवान का मंदिर) का जीर्णोद्धार श्रेष्ठी गुणराज ने महाराणा मोकल के समय 1423 ई. से 1438 ई. तक करवाया। सोम सौभाग्य काव्य के अनुसार बाद में इसमें प्रतिष्ठा सोमसुन्दरसूरि द्वारा की गई।
  60. महाराणा कुम्भा के अन्तिम समय से दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रभाव समाप्त हो गया तब श्वेताम्बर जैनों द्वारा महावीर प्रसाद का जीर्णोद्धार करवाया गया। दुर्ग पर अन्य सभी मंदिर खरतरगच्छ एवं अंचलगच्छ के थे। तपागच्छ का यही एक मंदिर तब था।
  61. नान्दगांव के धातु प्रतिमा के 1484 ई. के लेख से ज्ञात होता है कि जैन कीर्तिस्तंभ का निर्माण चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र जिनालय (आज का मल्लिनाथ जी का मंदिर) के सम्मुख शाह जीजा के पुत्र पुण्यसिंह ने करवाया। एक अनय लेख के अनुसार इसकी प्रतिष्ठा भट्टारक धर्मचन्द्र ने की थी।
  62. सातबीस देवरी के मंदिरों के समूह में कुछ राणा कुम्भा, राणा मोकल एवं राणा रायमल कालीन है।
  63.  पिटर्सन की 1883-84 की रिपोर्ट के अनुसार जिनवल्लभसूरि ने विधि मार्ग के प्रचार के लिए चितौड़गढ़ को ही मुख्यालय बनाया व वीरचैत्यों की दीवारों पर धर्म, शिक्षा एवं पट्टक उकेरे गये।
  64. संवत् 1914 तद्नुसार 1857 ई. में त्रिस्तुतिक संघ के प्रणेता एवं राजेन्द्र अभिधान कोष के लेखक पुज्य राजेन्द्रसूरीश्वर जी का चातुर्मास चित्तौड़गढ़ में हुआ था।
  65. अहमदाबाद में आचार्य विजयनीति सूरीश्वर जी के संपर्क मंे एक बोहरा हैदरअली सम्पर्क में आया। वह गूंगा था, पर ज्ञानी था। वह स्लेट पर लिखकर कुरान शरीफ की अच्छी बातें आचार्य श्री को लिखकर देता था व आचार्य श्री उसकी जैन धर्म के बारे मंे शंकाओं का समाधान करते थे। कई सालों बाद वह आचार्य श्री को मिला, वह बोलने लग गया था। पूछने पर बताया कि शत्रुंजय की यात्रा आपके आदेश से करने गया तो वहां मन्दिर में ही आवाज मिल गई।
  66. ई 1615 में सर टाॅमस रो ने अपने सफरनामे मंे पृष्ठ 19 पर लिखा है यह शहर (चित्तौड़) राणा के मुल्क में है, जिसको इस बादशाह ने थोड़े दिन पहले ही अपना मातहत बनाया है बल्कि कुछ रुपया पैसा देकर अपनी मातहती कबूल करवाई।
  67. ई 629 में चीनी यात्री व्हेनसांग लिखता है ‘‘यह मुल्क घेरे में 6000 ली (6 ली. 1 मील) है। राजधानी (चित्तौड़गढ़) का घेरा करीब 30 ली है। बाशिन्दे करोड़पति है। दूर-दूर के मुल्कों की कीमती चीजें यहां पर बहुतायत से मिलती है। यहां कई सौ देवी-देवताओं के मन्दिर है’’ इसी तरह अलग-अलग समय में विलियम राबर्टसन, मार्शमैन, माल्कम, रेनाल्डद्व इलियट, हैरिस, हंटर, लुई रो सेलेट, बनिर्यर, कनिंघम आदि कई-कई विद्वानों ने चित्तौड़ और मेवाड़ की अभूतपूर्व प्रशंसा की है। यहां तक कि ‘‘तुजक जहांगीरी’’ के पृष्ठ 122 में बादशाह जहांगीर लिखता है ‘‘चित्तौड़गढ़ के सबसे पहले रावल से लेकर राणा अमरसिंह तक 26 पीढ़ियां होती है जिन्होंने 461 साल राज्य किया है। इस अरसे में उन्होंने हिन्दुस्तान के किसी भी बादशाह की अधीनता स्वीकार नहीं की है’’।
  68. अकबर के निम्नत्रण पर फतेहपुर सीकरी जाते समय हीरविजयसूरि सिरोही में रूके थे जहाँ उनके उपदेशों से अकबर ने कुछ कर समाप्त कर दिये थे। (सूरीश्वर और सम्राट अकबर-मुनि विद्याविजय आगरा, 1923)
  69. महाराणा कुम्भा के काल में मेवाड़ में तपागच्छ व खरतरगच्छ का विशेष प्रभाव रहा। तपागच्छ के आचार्य सोमसुन्दरसूरि, मुनिसुन्दरसूरि, सोमदेवसूरि, जयशेखरसूरि, जिनहर्षगणि, रत्नशेखर, माणिक्यरत्नगणि एवं खरतरगच्छ के जिनराज, जिनसागर, जिनसुन्दर तथा दिगम्बर आचार्य सकल कीर्ति, भुवन कीर्ति, ब्रह्मजिनदास आदि ने चित्तौड़ में विपुल साहित्य सृजन किया। (महाराणा कुम्भा एंव उनका काल-डाॅ. तारामंगल)
  70. प्रसिद्ध जैनाचार्य यशोभद्रसूरि का प्रभाव गोडवाड एवं मेवाड में फैला हुआ था। भावनगर इन्सक्रिपसन्स पृष्ठ 143-45 चित्तौड़ के सातबीस देवरी के 10 वी शताब्दी के खण्डित लेख में यशोभद्रसूरि परम्परा के आचार्य का उल्लेख है। (राजस्थान इतिहास के स्त्रोत, प्रो. जी. एन. शर्मा पृष्ठ, 158)
  71. अभिलेखों से विदित होता है कि प्रतिहार वंश का एक शासक वैष्णव द्वितीय परम शैव, तृतीय भगवती का उपासक एवं चतुर्थ परम आदित्य भक्त ही नहीं था अपितु जैन एवं बौद्ध धर्मों के प्रति भी उदार थे। राष्ट्रकूट नरेश जैन मतावलम्बी थे किन्तु उसी राजवंश के प्रसिद्ध शासक दंतियुग ने ब्राह्मण धर्म का अवलम्बन किया। (राष्ट्रकूट्स एण्ड देयर टाईम्स, पूना 1934-अल्तेकर ए एस)। इसी तरह नागभट्ट द्वितीय (753-833 ई) द्वारा भी जैन धर्म अंगीकार करने का उल्लेख मिलता है (स्कंद पुराण 3.2.36.47)
  72. नरेश भर्तृभट् द्वारा गुहिल निर्माण करवाने एवं आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाने का उल्लेख मिलता है। (राजस्थान थू द एजेज-प्रो. दशरथ शर्मा)
  73. धर्मपाल एवं राजा भोज के सानिध्य का उल्लेख प्रबन्ध चिन्तामणि में मिलता है। इन्ही धर्मपाल की ‘तिलक मंजरी से प्रभावित होकर राजा भोज ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। (प्रतिपाल दि परमार्स-भाटिया)
  74. आचार्य हरिभद्र द्वारा चित्तौड़गढ़ में आचार शुद्धि हेतु विधि चैत्य आन्दोलन चलाया गया था। जिसे उनके विषय उद्योतनसूरि एवं सिद्धर्षिसूरि द्वारा आगे बढाया गया। जिनेश्वरसूरि द्वारा चैतयवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया गया (एनसियेन्ट सिटीज एण्ड टाउन्स आॅफ राजस्थान’ के. सी जैन)

<< 7. शिलालेख एवं प्रशस्तियाँ9. परिशिष्ट >>




Chapters (चित्तौड़गढ़ & जैन धर्म)

  1. जैन धर्म का गौरव स्थल
  2. जैन श्रद्धालु
  3. पूजित जिन मंदिर
  4. महान जैन आचार्य
  5. दानवीर जैन श्रेष्ठी
  6. चित्तौड़ में रचित जैन साहित्य
  7. शिलालेख एवं प्रशस्तियाँ
  8. रोचक एवं ऐतिहासिक तथ्य
  9. परिशिष्ट
  10. चित्तौड़गढ़ दुर्ग का गाइड मेप
  11. भक्तिमती मीराबाई
  12. जैन धर्मशाला
  13. श्री केसरियाजी जैन गुरूकुल

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