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Published on Friday, January 19, 2018 by Dr A L Jain | Modified on Monday, February 19, 2018
चित्तौड़गढ़ मात्र एक दुर्ग ही नहीं है, बल्कि एक अद्भुत राष्ट्र का ज्वलंत एवं मूर्तिमान इतिहास है। यह एक ऐसी परम्परा का प्रतीक है जो शताब्दियों से अपनी मातृभूमि के लिए मर मिटने की प्रेरणा देता है। वीरों और वीरांगनाओं के रुधिर एवं भस्म ने मिलकर इस दुर्ग को ऐसा पक्का एवं गहरा रंग दिया है कि इसकी चमक सदियों से वैसी की वैसी ही बनी हुई है।
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ एवं लेखक कर्नल टाॅड ने चित्तौड़ दुग्र के दर्शन के बाद लिखा था ‘‘मै तब तक देखत ही रहा, जब तक सूर्य की अन्तिम किरण चित्तौड़ दुर्ग पर नहीं पड़ी। चूंकि जिधर भी नजर जाती है वही स्थल मस्तिष्क को अतीत के चित्रों से भर देता है और उससे जुड़ी यादें एवं विचार इतनी तेजी से आते है कि उनको कागज पर उतारना कठिन हो जाता है।’’
चित्तौड़ एवं उसके आसपास का भू-भाग शिबि जनपद कहलाता था जिसका प्रमुख नगर आज के चित्तौड़ से 15 किमी दूर का ‘नगरी’ नामक गाँव है जिसे ‘माध्यमिका’ कहा जाता था। बड़ली गाँव से ई. पूर्व 443 के एक शिलालेख में माध्यमिका में जैन केन्द्र के होने एवं भगवान महावीर के इस क्षेत्र में विचरण का उल्लेख मिलता है। इसे ‘मेदपाट’ के नाम से भी जाना जाता था। मौर्यवंश के अन्तिम राजा बृहद्रथ को मारकर उसका सेनापति पुष्यमित्र गद्दी पर बैठा, जिसने अश्वमेध यज्ञ भी करवाया था। अश्व को देश के उत्तरी भाग में कब्जा जमाये यूनानियों ने पकड़ लिया था जिसे पुष्यमित्र के सैनिक छुड़ा लाए थे। इसके परिणाम स्वरूप यूनानियों के भयंकर हमले ‘माध्यमिका’ पर होने लगे और अन्त में यूनानी नरेश मिनेन्डर के भयंकर हमले में इस गणराज्य का पतन हो गया। पांचवी-छठी शताब्दी में मौर्यवंशीय राजा चित्रांगद ने चित्तौड़ दुर्ग पर किला बनवाया। तब से दुर्ग चित्रकूट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुमारपाल प्रबन्ध में इसका उल्लेख इस प्रकार हुआ है।
तत्रचित्रांगदश्च दुर्ग चित्र नगोपरि।
नगरं चित्रकूटारण्यं देवेन तदधिष्ठितम।।
सम्राट हर्षवर्द्धन कृत ‘चैत्यवंदन स्तोत्र’ में इसका वर्णन इस तरह आया है:-
आघाटे मेदपाटे क्षितितल मुकुटे चित्रकूटे सुकूटे
श्री शत्रुंजय पर्वतस्थ प्रशस्ति लेख सं. 1587 में चित्रकूट निम्न प्रकार से उल्लेखित है।
विशाल साल क्षिति लोचनानां
रन्यो नृणां लोचन चित्रकारी।
विचित्र कूटे। गिरि चित्रकूटो
लोकस्तु यत्रा खिलकूट मुक्तः।।
इसी ग्रंथ के अन्य श्लोक में चित्रकूट की प्रशस्ति इस तरह उल्लेखित है:-
श्री मेदपाटे प्रगट प्रभवे, भावेज भण्ये भुवन प्रसिद्धे।
श्री चित्रकूटे मुकुटयमानो विराजमानोअस्ति समस्त लक्ष्म्या।।
यह विशाल दुर्ग 700 एकड़ में फैला है। पठार की ऊँचाई 180 मीटर है जबकि समुद्र तल से यह 408 मीटर की ऊँचाई पर है। इस पठार की लम्बाई 5.6 कि.मी एवं ऊँचाई 0.8 कि. मी. है। महाभारत काल में इसी दुर्ग पर पाण्डव भी आकर रहे थे, ऐसी मान्यता है। उनके नाम से दो जलाशय भीमगोड़ी एवं भीमलत आज भी हां विद्यमान है। दुर्ग पर किसी समय 84 कुण्ड विद्यमान थे।
आठवीं शताब्दी में यहां मौर्यवंशी राजा मान का आधिपत्य था। उसी को हराकर गुहिल वंश के प्रतापी राजा बप्पा रावल ने 735 ई. के आसपास अधिकार जमाया था (राज प्रशस्ति महाकाव्य) बाप्पा रावल के मरते ही मालवा के साथ-साथ चित्तौड़ भी प्रतिहारों के अधिकार में चला गया। 10 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रतिहारों की शक्ति क्षीण होने के साथ मालवा के परमारों ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। राजा मुंज के पश्चात् राजा भोज ने दुर्ग पर समिद्धेश्वर मन्दिर बनवाया था। राजा भोज के पश्चात् गुजरात के चालुक्य (सोलंकी) नरेश सिद्धराज जयसिंह ने लम्बे युद्ध के बाद चित्तौड़ जीत लिया। जिसके उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल हुए, जिन्होंने जैन धर्म अंगीकार कर कई परापेकारी कार्य किये। जैन कीर्ति स्तम्भ का जीर्णोद्धार एवं कई मन्दिरों का निर्माण किया। चालुक्य राजा भीमदेव-द्वितीय के समय गुहिलवंशी जैत्रसिंह ने पुनः चितौड़ पर अधिकार कर लिया। इस दुर्ग पर अधिकार के लिए समय≤ पर संघर्ष होता रहा पर दुर्ग को विशेष क्षति रावल रतनसिंह के समय (1302-1303) हुई जब सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने इस पर चढ़ाई की। वीर क्षत्रियों ने डटकर मुकाबला किया। अपने सतीत्व पर आंच न आये इसलिए महाराणी पद्मिनी सहित 16000 राजपुत नारियों ने संभवतः जटाशंकर मन्दिर के पास के खुले स्थान पर जौहर कर अपने सतीत्व की रक्षा की। इसे चित्तौड़ का पहला साका कहा जाता है। गोरा-बादल नामक दो वीरों ने इस युद्ध में बड़ी वीरता दिखलाई। रावल रतनसिंह इस युद्ध में मारे गये थे।
भाटों की प्रचलित कथा के अनुसार रानी पद्मिनी के रूप की प्रशंसा सुनकर उसे हासिल करने के लिए ही खिलजी चित्तौड़ तक आया। शक्ति से पद्मिनी को प्राप्त करने में असमर्थ पाकर उसने संदेश भिजवाया कि मै केवल दर्पण में ही पद्मिनी को देखकर दिल्ली लौट जाऊंगा। लेकिन दर्पण में पद्मिनी का असाधारण रूप देखकर उसके मन में पाप आ गया और उसने उसे किले बाहर विदा करने आए रावल रतनसिंह को गिरफ्तार कर लिया और पद्मिनी को संदेश भिजवाया कि वह साथ आने को तैयार हो तो रतनसिंह को छोड़ दिया जावेगा। पद्मिनी ने युक्ति से काम लिया और कहलवा दिया कि आप 700 पालकियों की व्यवस्था मेरी दासियों सहित मुझे लाने के लिए भेज दे। इन 700 पालकियों में वीर सशस्त्र योद्धा बैठ गये। पालकियाँ पूरी तरह ढ़की हुई थी। उन्हें उठाने वाले 6-6 बहादुर कहार, सुल्तान के खेमे पहुँचे और कहलवाया कि पद्मिनी अंतिम बार अपने पति से मिलना चाहती है। सुल्तान राजी हुआ। राजपूत वीरों ने रतनसिंह को उन्ही पालकियों में रवाना कर भयंकर युद्ध किया। सुल्तान निराश होकर दिल्ली लौट गया, पर पुनः अपनी सेना को संगठित कर चित्तौड़ पर चढ़ाई की। इस बार विजय खिलजी के हाथ लगी। पद्मिनी ने 16000 नारियों के साथ जौहर किया।
अमीर खुसरों ने अपनी पुस्तक ‘तारीख-ए-अलाई’ में लिखा है कि ‘तारीख 28 जनवरी, 1303 को सुल्तान चित्तौड़ फतह के लिए दिल्ली से रवाना हुआ 25 अगस्त, 1303 को किला फतह हुआ। तीस हजार हिन्दुओं का कत्ल करने का हुक्म देने के बाद सुल्तान ने चित्तौड़ का राजय अपने पुत्र खिजरखाँ को सौप दिया और चित्तौड़ का नाम खिजराबाद रखा। खिजरखाँ ने 8 वर्ष (1311 ई. तक) किले को अपने में रखकर जालौर के मालदेव सोनगरा को सौप दिया।
अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय चित्तौड़ दुर्ग के मन्दिरों, स्मारकों एवं हजारों जानों की क्षति हुई। कुछ समय पश्चात् राणा हमीर ने अपने पूर्वजों के राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। राणा हमीर के शासन काल (1326-1364 ई.) में मेवाड़ ने बहुत तरक्की की। बाद के 150 वर्षों में चित्तौड़ उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गया। राणा मोकल (1398-1433 ई.) के कार्यकाल में कई जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ। राणा कुम्भा के कार्यकाल (1433-1468 ई.) में अनेक भव्य प्रसाद, अजेय दुर्ग एवं ऐतिहासिक स्मारकों का निर्माण हुआ। महाराणा कुम्भा महाप्रतापी, कला मर्मज्ञ एवं संगीतशास्त्री थे। यह मेवाड़ का स्वर्णकाल था। 1507-1527 ई. तक संग्रामसिंह (महाराणा सांगा) का राज्य रहा। सांगा परमवीर, दूरदर्शी एवं कुशल प्रशासक थे। 1527 ई. में सांगा ने बाबर का खानवा युद्ध में बहुत बहादुरी से सामना किया परन्तु नीति संबंधी कुछ भूलों के कारण वे युद्ध हार गये। राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज का देहान्त अपने पिता के सामने ही अल्प आयु में हो चुका था। मीराबाई इन्ही की पत्नी थी। राणा सांगा के बाद उनके द्वितीय पुत्र रतनसिंह (द्वितीय) गद्दी पर बैठे लेकिन उनकी अकाल मृत्यु पर राणा सांगा की हाड़ी रानी कर्मवती अपने दोनो पुत्रों विक्रमादित्य और उदयसिंह को लेकर रणथम्भौर से चित्तौड़ आ गई। विक्रमादित्य चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा पर उसकी अकुशलता व अशोभनीय व्यवहार से जनता एवं मेवाड़ के सरदारों में असंतोष हो गया। इसी का लाभ लेकर गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने 1534 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। राजमाता कर्मवती ने बुद्धिमता से तीन काम किये-एक विक्रमादित्य एवं उदयसिंह को बूंदी भेज दिया, दो मेवाड़ के सरदारों को दुर्ग की रक्षा करने हेतु सुपुर्द कर दिया, एवं तीन बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर चित्तौड़ की रक्षा हेतु पत्र भेजा।
देवलिया-प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह अन्य सरदारों सहित युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। दुर्ग में राजमाता कर्मवती ने अपनी 13 हजार वीरांगनाओं सहित जौहर किया। यह दुर्ग पर ‘दूसरा साका’ था जो सम्भवतः समिद्धेश्वर मन्दिर के पास के खुले स्थान में हुआ था। राजमाता कर्मवती की चित्तौड़ रक्षा की विनती पर हुमायूं सेना के साथ चित्तौड़ के लिए रवाना हुआ, पर तब तक देरी हो चुकी थी। पराजय एवं दूसरा साका भी घटित हो चुके थे। बहादुरशाह अभी जीत का जश्न ही मना रहा था कि हुमायूं के आक्रमण पर दोनों सेनाओं में मन्दसौर के पास युद्ध हुआ। बहादुरशाह की पराजय हुई और वह भाग गया। बाद में महाराणा विक्रमादित्य पुनः सत्तारूढ़ हुए, पर उनकी अक्षमता से दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ आकर उनका कृपा पात्र बन गया। एक रात्रि में बनवीर ने राणा विक्रमादित्य को मार डाला और भावी उत्तराधिकारी उदयसिंह को माने के लिए महलों की ओर बढ़ा। उदयसिंह की धाय पन्ना ने अपनी स्वामीभक्ति एवं त्याग का अभूतपूर्व परिचय देते हुए अपने पुत्र को राजकुमार उदयसिंह के कपड़े पहना कर बनवीर के समक्ष प्रस्तुत कर उसे तलवार के घाट उतरवाकर, मेवाड़ के उत्तराधिकारी को बचा लिया। लगभग वर्ष बाद उदयसिंह ने बनवीर को हटाकर किला वापस ले लिया।
महाराणा उदयसिंह (1537-1572 ई.) ने अपनी बुद्धि से मेवाड़ की हालत में सुधार कर दिया। इसी समय में बादशाह अकबर ने समूचे राजपूत शासकों को अपने अधीन कर लिया था, लेकिन मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह अकबर की दासता को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। फलस्वरूप 20 अक्टूबर 1567 को अकबर स्वयं विशाल सेना के साथ चित्तौड़ पर चढ़ आया। मेवाड़ की शक्ति को संगठित करने के लिए महाराणा चित्तौड़ के किले का भार चूंडावत साईदास (सलूम्बर), सिसोदिया पत्ता (केलवा) और राठौड़ जयमल (बदनौर) को सौपकर स्वयं पहाड़ों को सौपकर स्वयं पहाड़ों में चले गये।
अकबर किले में प्रवेश के लिए दीवार को तोड़ने के लिए सुरंगे बनवा रहा था। जैसे ही सुरंभ से कोई दीवार टूटती राजपूत यौद्धा उसे वापस मरम्मत कर लेते थे। बीच-बीच में किसी टूटी दीवार से मुगल सेना आ जाती तो बहादुरी से राजपूत सेना तगड़ा मोर्चा लेती। एक बार जयमल टूटी दीवार की मरम्मत करवा रहा था, तभी अकबर की गोली जयमल के पैर पर लगी, वह लंगड़ा हो गया। जयमल के बेकार होते ही सेना की हिम्मत टूट गई। अन्त में बचने का कोई उपाय न देखकर किले में जगह-जगह जौहर की आम धधक उठीं पत्ता हवेली के सामने भीमलत कुण्ड के आसपास की हवेलियों में हजारों की संख्या में बच्चों और वीरांगनाओं का जौहर हुआ। यह चित्तौड़ किले पर तीसरा साका था। जयमल राठौड़ अपनी टूटी हुई टांग के साथ भी लड़ने को आगे आ रहे थे, इस पर उनके सम्बन्धी कल्ला ने उन्हें अपने कन्धे पर बिठा लिया। दोनों वीर अपने हाथों में नंगी तलवारों से दुश्मन का कड़ा मुकाबला करते हुए हनुमानपोल और भैरवपोल के बीच मारे गये। वीर पत्ता को एक हाथी ने सूंड से पकड़कर जमीन पर पटककर मार डाला। राजपूतों ने बहुत हिम्मत से अकबर की सेना का मुकाबला किया। अन्त में किले का पतन हुआ। अकबर आसफ खाँ को किले का अधिकारी बनाकर अजमेर चला गया।
दिल्ली पहुँचकर बादशाह अकबर ने चित्तौड़ की सेना के अद्भुत वीर जयमल और पत्ता की मूर्तियाँ बनवाकर अपने किले के बाहर सम्मान स्वरूप दो हाथियों पर विराजमान करवायी। फ्रान्सीसी यात्रा बर्नियर ने इन दोनों मूर्तियों को वहाॅ देखा था। बाद में शायद औरंगजेब ने इनको धरती में गड़वा दिया। इन मूर्तियों के नीचे यह लेख लिखा हुआ था।
जयमल बड़ता जीमणै, पत्तौ डावें पास।
हिन्दु बढिया हाथियां, अड़ियौ जस आकाश।।
पराजय के पश्चात् महाराणा उदयसिंह ने मेवाड़ की नयी राजधानी उदयपुर की नीव डाली। महाराणा उदयसिंह का देहांत सन् 1572 मंे हुआ।
महाराणा उदयसिंह के बाद उनके पुत्र प्रताप सिंह (महाराणा प्रताप) मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। वे बड़े देशभक्त, आत्माभिमानी एवं वीर पुरूष थे। हल्दी घाटी के युद्ध के पश्चात उन्होंने जंगलों में, पहाड़ों की कन्दराओं में बहुत दुखमय जीवन बिताया लेकिन अकबर की दासता स्वीकार नहीं की। जैन गौरव भामाशाह द्वारा भेंट धन से महाराणा प्रताप सेना संगइित् कर चित्तौड़़ और मांडलगढ़ को छोड़कर सारे मेवाड़ पर अपना पुनः अधिकार करने में सफल रहे।
चित्तौड़ के लिए महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि ‘‘जब तक चित्तौड़ को वापस न ले लूँगा तब तक मै और मेरे वंशज शान शौकत की वस्तुओं का प्रयोग नहीं करेंगे, सोने और चाँदी की थाल के स्थान पर पत्तलों पर भोजन करेंगे, घास पर सोयेंगे और मूछों पर ताव नहीं देगे’’ अपने जीवनपर्यन्त उन्होंने इस प्रतिज्ञा को निभाया। दुनिया के इतिहास में राष्ट्र के हित ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करने वाले शासक न हुए थे, न होंगे। इस वीर शिरोमणि का देहान्त 19 जनवरी 1597 को चावण्ड में हुआ था।
तीसरे साके के पश्चात (1568 ई.) में चित्तौड़ दुर्ग की गरिमा एवं गौरव अस्त हो गया। मेवाड़ की राजधानी होने का गौरव भी इससे छीनकर उदयपुर को मिल गया। चित्तौड़ दुर्ग जो कभी सेकड़ौ मन्दिरों की घंटियों से आबाद था आज वीरान हो गया था। पादरी एडवर्ड ने चित्तौड़ के तब के अपने सफरनामे में लिखा’’ आज यहाँ 200 से ज्यादा मन्दिरों और बहुत उम्दा पत्थरों के लगभग एक लाख मकानों के खण्डहर नजर आते है’’ (वीर विनोद)। 1615 ई. में प्रताप के बेटे अमरसिंह एवं दिल्ली के बीच मेवाड-मुगल सन्धि से चित्तौड़ मेवाड को लौटा दिया गया।
सन्धि के अनुसार महाराणा दुर्ग की मरम्मत और किले बन्दी नहीं करवा सकते थे। चित्तौड़ दुर्ग की परीक्षा अभी और होनी थी। 1664 ई. में शाहजहाँ ने भी दुर्ग पर बची हुई अस्मिता को समाप्त करने के लिए विध्वंस का ताण्डव करवाया। औरंगजेब ने 69 मन्दिरों को ध्वस्त किया। औरंगजेब के लौटने के बाद मेवाड़ की सेनाओं ने मुगल सेना पर आक्रमण कर भारी नुकसान पहंुचाया। फलस्वरूप 1681 ई. में मुगल महाराणा जयसिंह के साथ सन्धि करने को बाध्य हुए।
मुगल सत्ता के कमजोर होने से उत्तरी भारत में 18 वी शताब्दी से मराठा शक्ति का उदय हुआ। मेवाड़ में शक्ति क्षीण होने से महाराणा की पकड़ भी कमजोर हो गई थी।
फलस्वरूप मेवाड़ में अराजका का युग प्रारम्भ हुआ। मराठों व पिण्डारियों ने जनजीवन को दहशत से भर दिया था। मराठे मेवाड़ के आंतरिक मामलों में दरवल देने लगे थे। 1771 में सलूम्बर रावत भीमसिंह चित्तौड़ के किलेदार बने। इन्होंने चित्तौड़ दुर्ग को आबाद करने के लिए सिन्धी सैनिकों को और बाहर के लोगों को भी दुर्ग पर एवं दुर्ग की तलहटी में बसाया। 1818 में ब्रिटिश हुकुमत और मेवाड़ के बीच हुई सन्धि के उपरान्त ही मेवाड़ को मराठों एवं पिण्डारियों की लूटमार से मुक्ति मिली। सन् 1833-34, 1868-69, 1900 में भयंकर अकाल एवं सन् 1917 में प्लेग की बीमारी से हजारों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। 1940 से 1947 तक द्वितीय विश्व युद्ध का असर भयंकर महंगाई के रूप में मेवाड़ पर पड़ा।
इस तरह चित्तौड़ के इतिहास में महाराणा जैत्रसिंह, समरसिंह, हमीर, मोकल, कुम्भा एवं संग्रामसिंह (1213 ई. से 1527 ई.) तक का काल मुगलों के आक्रमण के उपरान्त भी उत्तरोत्तर प्रगति का काल रहा। 1527 से 1947 के लगभग 420 वर्षों का काल पराभव एवं कठिनाइयों का काल ही रहा। 1947 में देश की स्वतंत्रता के बाद चित्तौड़गढ़ ने पिछले .... वर्षों में प्रगति के नये-नये सोपान रचे है।
सन् 1950 में चित्तौड़ जिला मुख्यालय बना, 1952 में नगरपालिका, 1960 में नगरविकास प्रन्यास, 1953 से 1958, 2000 से आज तक नई-नई काॅलोनियों का विकास, 1961 में सैनिक स्कूल, 1928-29 में आर्य गुरुकुल, 1881 में अजमेर-खण्डवा रेल मार्ग 1895 में उदयपुर-चित्तौड़गढ़ रेल मार्ग, 1890 में सिविल अस्पताल जो 1962 में रेफरल बना। 1924 में जिनिंग प्रेस, 1956 में आॅयल मिल, 1959 में पत्थर घिसाई, 1966-68 में बीसीडब्ल्यू, 1972 में मेहता वेजिटेबल प्रोडक्ट्स 1970 के बाद मार्बल उद्योग एवं हिन्दुस्तान जिंक, 1995 के बाद फोरलेन सड़कें आदि। चित्तौड़गढ़ ने स्वतंत्रता के बाद तरक्की की राह पकड़ी। लेकिन विशेष रूप से 1970 के बाद सभी क्षेत्रों में विकास की दर बहुत प्रशंसनीय रही है।
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